Book Title: Sanmati Prakaran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
Publisher: Gyanodaya Trust

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Page 181
________________ द्वितीय काण्ड : गाया-८ समालोचनाके लिए सहवादी पक्षका उल्लेख कवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा गाणं । तह दसणं पि जुज्ज णियावरणक्खयरत ॥५॥ भण्णई खीणावरण जहमणाणं जिणे ण सम्मवई । तह खीणावाणिज्जे विससओ दसणं नथि ॥६॥ સુત્તપિ વેવ સાર્વ-પ્રવજ્ઞવસિયં તિ વત્ન વત્તા सुत्तासायणभीरूहि तं च दद्वयं होइ ॥ ७ ॥ संतम्मि केवले सणात जाणारा संभवो पत्थि । केवलणाणम्मि य दंसणस तम्हा सणिणाई ॥ ८ ॥ अर्थ केवलज्ञानावरण क्षयसे उत्पन्न होनेवाले केवलज्ञानका जिस तरह होना घटता है, उसी तरह अपने आवरणके क्षयके पश्चात् केवलदर्शनका होना भी घटता है। कहते है कि क्षीण-आवरणवाले केवलीमे जैसे मतिज्ञान सम्भव नहीं होता, वैसे ही क्षीण-आवरणवालमे कालभेदसे दर्शन नहीं है। केवल सादि-अनन्त है ऐसा सूत्रमे ही कहा है। सूत्र की आशाताना से डरनेवालेको उस सूत्र पर भी विचार करना चाहिए। __ केवलदर्शन होता है तब ज्ञानका सम्भव नही है तथा केवलज्ञानके समय दर्शनका भी सम्भव नही है। अत. ये दोनो अन्तवाले ठहरते है। विवेचन गुख्यत युक्तिवलका अवलम्बन लेनेवाला एक दूसरा सहवादी पक्ष था। उसीको अन्यकार यहाँ क्रमपक्षके सामने समालोचकके रूपमे रखकर उसके पाससे क्रमवादके विरुद्ध कहलाते है । यहाँ सहवादी क्रमवादीके सामने तीन दलीलें प्रस्तुत करता है। वे इस प्रकार है-- (१) जिस कारण अमुक क्षण में केवलज्ञान है उसी कारण उसी क्षण मे केवलदर्शन होना ही चाहिए। केवलज्ञान होनेका कारण यदि उसके आवरणका क्षय है, तो आवरणक्षय समान होनेसे उसी क्षणमैं केवलदर्शन क्यो नही हो सकता ? सच" बात तो यह है कि जैसे वस्तुस्वभाव के कारण अनावृत सूर्य एक ही साथ गरमी और प्रकाश फैलाता है, वैसे ही निराकरण चेतना एक ही साय ज्ञान एव दर्शन क्यो न प्रकट

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