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तृतीय काण्ड : गाथा-३४
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अदहनपना साक्षरूपसे है ही, इनमे कोई भी विरोध नहीं है यह बात अनेकान्तदृष्टि सिद्ध करती है। यही युक्ति पवनमे भी लागू होती है।
जीव एक स्वतंत्र द्रव्य अर्थात् भावात्मक वस्तु है । इसी तरह घट आदि पुद्गल भी स्वतन्त्र द्रव्य होनेसे भावात्मक वस्तु है। इन दोनो द्रव्योको कोई अभावात्मक कहे, तो स्यूलदृष्टिवालेको उसमे विरोध ही प्रतीत होगा। ऐसा व्यक्ति कह सकता है कि यदि जीव एक द्रव्य है, तो वह अभावात्मक कैसे हो सकता है ? इसी तरह घट भी पुद्गल द्रव्य होनेसे अभावात्मक कैसे हो सकता है ? उसे प्रतीत होनेवाला यह विरोध कितने अशोमे ठीक है, यह देखने के लिए इन दोनो द्रव्योकी तुलना करनी पडेगी। यह तो सच है कि जीव एक द्रव्य है और चट भी एक द्रव्य है, परन्तु क्या दोनो द्रव्य सशिमे समान ही है । यदि अनुभव ऐसा कहे कि इन दोनोमे अन्तर भी है और वह यह है कि एकमे चैतन्य है, जो दूसरेमे नही है तथा दूसरेमें जो रूप मादि मूर्त गुण है वे पहलेमे नही है, तो इस कयनका अर्थ यही होगा कि जीव चैतन्यरूपसे तो है, किन्तु रूप आदि गुणस्वरूप नही है। इसी तरह ५८ रू५ आदि पोद्गलिक धर्मस्वरूप' है, चैतन्यरूप नही । यह सब देखनेपर जो पहले भावमिकता और अभावात्मकता के बीच विरोध प्रतीत होता था, वह रहता ही नही और वे दोनो अश सापेक्षरूपसे बराबर ठीक हो जाते है, तथा निश्चय होता है कि जीवद्रव्य चैतन्यरूपसे भावात्मक होनेपर भी जिस पौद्गलिक स्वरूपसे वह नही है उसकी दृष्टि से तो वह अभावात्मक भी है। यही न्याय घट आदि पोद्गलिक द्रव्योमे भी लागू होता है। द्रव्यगत उत्पाद एव नाशक प्रकार
ડપ્પાજો દુનિયuો પોનબિો વીસલા જેવ
तत्थ उ पोगणियो समुदयनायो अपरिसुद्धो ॥ ३२ ॥ साभावियो वि समुदयको व एतियो(त्तिओ)व्य होजाहि। भागासाईआणं तिहं परपच्चोऽणियमा ॥३३॥ विगमरस नि एस विही समुदयजणियमिसो उ दुवियप्पो ।
समुदयविभागमतं अत्यंतरावगमणं च ॥ ३४॥ अर्थ उत्पाद प्रयत्नजन्य और वैनसिक (अप्रयत्नजन्य अर्थात् स्वाभाविक) इस तरह दो प्रकारका है। इनमेसे जो प्रयत्नजन्य है वह तो समुदायवादके नामसे प्रसिद्ध है और वह अपरिशुद्ध भी कहलाता है।