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सम्मति-प्रकरण
कहते है कि शास्त्रको यथावत् प्ररूपणाका अधिकार प्राप्त करने के लिए तत्वोका पूर्ण और निश्चित ज्ञान होना चाहिए । वह केवल शास्त्रको भक्तिसे अथवा उसके थोडेसे ज्ञानसे सिद्ध नहीं होता, क्योकि भक्ति होने पर भी बहुत-से लोगोमे गास्त्रका शान नहीं होता और शास्त्रका ज्ञान रखनेवाले सभी नियमत प्ररूपणा करनेकी योग्यता नहीं होती। ऐसी योग्यता तो शास्त्रनामे भी अनेकान्तप्टिका स्पर्श करनेवाले किसी विरलेभे ही होती है। तत्वोके पूर्ण और निश्चित ज्ञानके लिए क्या करना चाहिए इसका कयन
सुत्तं अत्यनिमेणं न सुत्तमत्तण अत्यपडिवत्ती ।। अत्यगई उण णयवायगहणलीणा दुरभिगा । ६४ ।। तम्हा अहिायसुत्रोण अत्यसंपाय जइयत ।
प्राथरियधारहत्या हंदि महाणं विलंबन्ति ।। ६५ ॥ - अर्थ सूत्र अर्यका स्थान है, परन्तु मात्र सूत्रसे अर्थकी प्रतिपत्ति नही होती; अर्यको ज्ञान भी गहन नयवादपर आश्रित होनेसे दुर्लभ है।
अत. सूत्रका ज्ञाता अर्य प्राप्त करने का प्रयत्न करे, क्योकि अकुशल एवं धृष्ट आचार्य सचमुच शासनकी विडम्बना करते है।
विवचन यदि कोई सूत्रपाठक अभ्यासमात्रसे तत्त्वज्ञताको दावा करे, तो उसे उत्तर देते हुए अन्यकार कहते हैं कि यह सच है कि अर्थका प्रतिपादक होनेसे सूत्रपाठ उसका आधार है, परन्तु केवल सूत्रपा०से अर्थका पूर्ण और विशद ज्ञान नही हो सकता। ऐसा ज्ञान गहन नयवादपर आश्रित होनेसे प्राप्त करना कठिन है। नयवाद वरावर प्रवेश होने पर ही ऐसा शान सुलभ हो सकता है।
अत जो व्यक्ति तपोका पूर्ण एवं विशद ज्ञान प्राप्त करना चाहता है उसे सूत्रपा० सीखने के पश्चात् भी उसका नयसापेक्ष और पूर्वापर अविरुद्ध अर्थ जानने के लिए प्रयत्न करना ही चाहिए और इसके लिए उसे नयवादमें प्रवेश करना ही पड़ेगा। जो ऐसा नही करते और अकुशल होने पर भी धृष्ट बनकर शास्त्रको प्ररूपणा करते है वे जन-प्रवचनको दूसरोकी दृष्टि में गिरा देते है।
पर चिन्तन-विहीन बाह्य बाडाबरमें आनेवाले दोषोका कथन करना हो जयवा आगोसम्मश्रोय सिरसगणसंपरिवुडो य। वातापर वरावर लक्ष्य रखयह तह तह सिद्धतपडिग्रीमो ॥६६ ॥
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