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तृतीय काण्ड : गाया-५५
४ कोई अदृष्टवादी अदृष्टको ही कारण मानकर उसकी पुष्टिमे कहते है कि सभी मनुष्य पूर्वसचित कर्मयुक्तपदा होते है और फिर वे सब सोचा न हो इस तरह __ अचिन्त्य रूपसे सचित कर्मके प्रवाहमे बहते है। मनुष्यको बुद्धि स्वाधीन नहीं है, पूर्वाजित सस्कारके अनुसार ही वह प्रवृत्त होती है। अत अदृष्ट ही सभी कार्योका कारण है। . ५ कोई पुरुषवादी केवल पुरुषको ही कारण मानकर उसकी पुष्टिमे कहते है कि जसे मकडी जालेके सब ततुओका निर्माण करती है, जैसे पेड सभी पत्ते और सहनियोको प्रकट करता है, उसी प्रकार ईश्वर जगत्के सर्जन, प्रलय एव स्थितिका का है। ईश्वरके सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है। कारण के रूपमे जो कुछ दूसरा दिखाई पडता है वह भी ईश्वर के अधीन है। इसीसे सब कुछ केवल ईश्वर-तत्र है।
ये पांचो ही वाद ययार्य नहीं है, क्योकि उनमें से प्रत्येक अपने मन्तव्योंके अतिरिक्त दूसरी दिशा न देख सकने के कारण अपूर्ण है, और अन्तमे सब आपसी विरोधोंस नष्ट होते है। परन्तु जब ये पांचो वाद परस्परका विरोधभाव छोडकर एक ही समन्वयकी भूमिका पर आते हैं, तभी उनमे पूर्णता आती है और पारस्परिक विरोध दूर होता है अर्थात् वे यथार्थ बनते है । उस स्थितिमे काल, स्वभाव आदि उक्त पांची कारणोको कार्यजनक सामर्थ्य, जो प्रमाणसिद्ध है, मान्य रखा जाता है और एक भी प्रमाणसिद्ध कारणका अपलाप नही होता। मात्माक बारेमे नारित्व आदि छ पक्षोका मिथ्यात्व और अस्तित्व आदि छः पक्षोका सम्यक्त्व--
थिण णिच्चोणकुणकयं णवएणस्थि णिवाण ।
स्थि य मोक्खोवानो छ छित्तरस माइं ॥५४॥ પ્રત્યે શ્વવિખાધા પછી જફ વેટ્ટ ઐથિ શિવાળું
अत्यि य मोक्खोवालो छ रसम्मतररा ठाणाई ॥५५॥ अर्थ आत्मा नही है, वह नित्य नही है, वह कुछ करता नहीं है, वह किये कर्मका अनुभव नहीं करता, उसका निर्वाण (मोक्ष) नही है और मोक्षका उपाय नही है ये छ, मत मिथ्याज्ञानके स्थान है। __ आत्मा है, वह अविनाशी है, वह करता है, वह अनुभव करता है, उसका निर्वाण है और मोक्षका उपाय है ये छ. मत यथार्यज्ञानक स्थान है।