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सन्मति-प्रकरण
विवेचन आध्यात्मिक विकासको सम्पूर्णता सावनेमे जिन पक्षों के आग्रह एक अथवा दूसरे रूपमे वाचक होते है और जो आग्रह उसमें सहायक होते है इन दोनो प्रकारोके आग्रहीको यहाँ कयन है। साचनामें वावक होनेवाले आग्रह भ्रान्त दृष्टि पर रचित होनेसे अयथार्थ और अभ्रान्त दृष्टिपर रचित सहायक आयह यथार्य है। वे अनुक्रमसे इस प्रकार है
१ आत्मा जैसा कोई तत्व ही नहीं है ऐसा मानना अनात्मवाद है, २. आत्मतत्व है तो सही, परन्तु वह नित्य न होकर विनाशी है ऐसा मानना क्षणिकामवाद है, ३ आत्मा है तो नित्य, परन्तु कूटस्थ होने से उसमे कर्तृत्व नहीं है ऐसा भानना कर्तृत्ववाद है, ४ आत्मा कुछ करता तो है, परंतु वह क्षणिक होनेसे अथवा निलेप होनेसे किसी विपाकका अनुभव नहीं करता ऐसा मानना अभोक्तृत्वपाद है, ५ बात्मा सर्वदा ही कर्ता और भोक्ता रहता है, अत उसके अपने स्वरूपकी भांति राग-द्वेष आदि दोषोका अन्त ही नही होता ऐसा मानना अनिर्वाणवाद है, ६ स्वभावसे आत्मा कभी मोक्ष पाता तो है, परन्तु उसे प्राप्त करने का दूसरा , अर्थात् स्वभावसे भिन्न कोई उपाय नही है ऐसा मानना अनुपायवाद है।
इन छ में किसी भी एक वादका आग्रह बच जानेपर या तो आध्यात्मिक साधनामे प्रवृत्ति ही नहीं होती और यदि हो तो वह न तो आगे विशेष चल ही सकती है और न अन्त तक टिक ही सकती है। अत उनके स्थान में अनुक्रमसे नीचेके आग्रह आवश्यक है
१ आत्मा है ऐसा मानना, २ वह है इतना ही नहीं, परन्तु अविनाशी है ऐसा मानना, ३ वह मात्र अविनाशी ही नही, कर्तृत्वशक्ति भी रखता है ऐसा मानना, ४ उसमे जिस प्रकार कर्तृत्वशक्ति है उसी प्रकार भोक्तृत्वशक्ति भी है ऐसा मानना, ५ कर्तृत्व एव भोक्तृत्वशक्ति होनेपर भी प्रवृत्तिके प्रेरक राग, द्वेष
आदि दोपोका मत कभी शक्य है ऐसा मानना, और ६ इस अन्तका उपाय है तथा उसका आचरण किया जा सकता है ऐसा मानना। ये छहो आग्रह साधकमे श्रद्धा । पैदा करके उसके द्वारा साधना में आगे बढ़ने के लिए उसे प्रेरित करते है और इसीलिए - ये सम्यक हैं। पादमे अनेकान्तदृष्टिक अभावसे आनेवाले दोष
साहा व अत्यंसाहज्ज परो विहम्मश्रो वा वि। अण्णो पडिकुळा दोण्णव एए असवाया ॥ ५६ ॥