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द्वितीय काण्ड : गाथा-१४
___ क्रमवादको यह कठिनाई सहवादमे नही है, क्योकि वह इन दोनो उपयोगोको उत्पत्ति एक ही क्षणमे तया एक ही साय स्वीकार करता है। फिर भी सहवाद भी । युक्तिसंगत नही है, ऐसा सूचित करने के लिए सिद्धान्ती उससे कहता है कि भले 'तुम्हारे पक्षमे क्रमपादकी तरह उत्पत्तिकमका दोष न हो, तथापि तुम जो उपयोगभेद मानते हो वही गलत है। वस्तुत केवलदशामे एक ही उपयोग है। विरोधी पक्षक ऊपर सिद्धान्ती द्वारा दिये गये दोष-~
जइ सव्वं सायारं जाणइ एकसमएण सवण्णू । जुज्जइ सया वि एवं अहवा सण याणा ॥१०॥ परिसुद्धं सायारं अवियत सणं अणायाम् । ण य खोणावरणिज्जे जुज्जइ सुवियत्तमवियत्तं ॥११॥ अष्ट्टि अण्णायं च कवली एव भासइ सया वि। एसमयपि हंदी वयवियप्पो न संभव ॥ १२ ॥ अण्णायं पासतो अट्टि च अरहा वियाणंतो। कि जाणई कि पास कह सवण्णु ति ना होइ ॥१३॥ कैवलणाणमणतं जहव तह दसणं पि ५०णतं ।
सागारगहणाहि य णियमपरित प्रणागारं ॥ १४ ॥ अर्थ यदि सर्वज्ञ एक समयमे सर्व साकार जानता है, तो उस तरह सदा ही होना चाहिए अथवा सब नही जानता है ।
साकार अर्थात् ज्ञान परिशुद्ध व्यक्त होता है, जबकि अनाकार अर्थात् दर्शन अन्य होता है । परन्तु क्षीण-आवरणवालमे व्यक्त एव अव्यक्तका भेद नही घट सकता। ' केवली ही सदा अदृष्ट और अज्ञात बोलता है ऐसा प्राप्त होनेसे कवलीमे एक समयमे ही ज्ञात एव दृष्ट वस्तुका उपदेश देनेकी मान्यता नही घटेगी।
એજ્ઞાત વનેવાડા ર અષ્ટક નાનનેવાલા જેવી ક્યા નાને और क्या देखे तथा वह सर्वज्ञ कैसे हो सकता है ?