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सन्मति-प्रकरण होना ही चाहिए। यह तो वस्तुस्थिति हुई। केवलीम देहावस्थाके समय जो सहनन, परिमाण आदि देहात विशेष होते है वे सिद्धि मिलते ही देहके साय नष्ट हो जाते है । देहावस्थामे देहके दिखाई देनेवाले विशेष आत्माके भी है, क्योकि देह और आत्मप्रदेशके वीच क्षीर-नीर जैसा सम्बन्ध होनेसे एकके पर्याय दूसरेके है ही। ऐसा होने से वे पर्याय नष्ट हुए' इसका अर्थ यह हुआ कि उस रूपसे आत्मा भी न रहा अर्थात् उस रूपमे वह नष्ट हुआ, और आत्मा केवलरूप होनेसे केवल भी नष्ट ही हुआ। और वही आत्मा सिद्ध हुआ अर्थात् सिद्धत्वपर्याय उसमे उत्पन्न हुआ, इससे वह केवल भी उत्पन्न हुआ। इस तरह भवपर्यायके ना। और सिद्धत्व पर्यायके उत्पादकी दृष्टिसे आत्माके पहलेके केवलज्ञान-दर्शन पर्यायको ना२।
और नवीन केवलज्ञान-दर्शन पर्यायका उत्पाद सिद्ध होता है। इसका मतलब यह हुआ कि केवलज्ञान एव केवलदर्शनपर्याय मात्र सादि ही नहीं है, किन्तु वे सपर्यवसान भी है। यदि ऐसा है, तो शास्त्रमे उन्हें अपर्यवसित क्यो कहा है ? इस प्रश्नको उत्तर स्पष्ट है और वह यह कि प्रतिक्षण ज्ञान-दर्शनपर्याय उत्पन्न एव नष्ट होनेपर भी केवलके रूप में अर्थात् निराकरण सत्ताके रूपमें ध्रुव है। इसीलिए वह अनन्त है । अर्थात् केवलबोध एक वार अपूर्व उत्पन्न होने से सादि है और फिर वादमें पर्याय रूपसे उत्पाद और नाशवान् होने पर भी सत्तारूपसे ध्रुव होने के कारण अपर्यवसित है। जीव और केवलक भेदकी आशका और उसका दृष्टान्तपूर्वक निरसन
जीवो अणाइणिहणो केवलणाणं तु साइयमणतं । इअ थोर। विससे कह जीवो केवल होइ ॥३७॥ तन्हा अण्णो जीवो अण्णे जाणाइपज्जेवा तर। उपसमियाईलक्खणविसेसओ केइ इच्छन्ति ॥ ३८॥ अह पुण पुत्वपयुत्तो अत्यो एतपक्पडिसहे। तह वि उदाहरणमिणं ति हेउपडिजोअणं वोच्छ॥३६॥ जह कोइ सद्विवरिसो तीसइवरिसो णराहियो जाओ। उभयत्थ जायसद्दो परिसविभाग विससेइ ॥४०॥ एवं जीव-५ अणाइ णिहणमविससियं जम्हा। रायसरिसो उ केलिपज्जाओ त सविसेसो ॥४१॥