Book Title: Sanmati Prakaran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
Publisher: Gyanodaya Trust

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Page 216
________________ ७२ सन्मति-प्रकरण विवचन कोई भेदवादी स्थिरताको द्रव्यमा यक्ष और सति-विनायका गुणका लक्षण पाहता है। उसके विरुद्ध न्यार पाहते है कि ये दोनो लक्षण द्रव्य एक गुणक एकान्त भेद ५२ अवलम्बित है। इसमें वेवल वर्मी अर्थात् णमुन्य आधारमार पोवल धर्म अर्थात् आवारान्य गुणमे ही घटगे, परन्तु धर्म और धर्मी इस तरह फेवल एकान्तभिन है ही नहीं, वे तो परस्प. अभिन्न भी है । धर्मी भी, धमकी भांति, उत्पाद-विनावान ही है और धर्म भी, धर्माकी भांति, स्थिर है ही। इमलिए धर्माको माय लियर करने में और धर्मको मात्र अविर पाहनों लक्षणकी अपूर्णता है। पूर्ण लक्षण तो यदि परस्पर अभिन्न धर्म-धर्मी उभयर वस्तुको मिलाकर बनाया जाय तभी घट सकता है। ऐता लक्षण पाच उमास्यातिन तत्वायसूत्र ५२९ मे बनाया है। वह कहते है कि जो उत्पाद-44-ध्रौव्ययुक्त हो वह सत् अर्थात् धर्म-धर्मी उभयर ५ वस्तु है। भेद-दृष्टिले बनाये गये उक्त दोनो लक्षणोमसे एक भी लक्षण कम मत् वन्नुको लागू नहीं हो सकता। મેવવૃષ્ટિ દૂપિત સિદ્ધ કરીને ત્રણ કસ બાંધાર પર રવિત પવત છે लक्षणोमे अव्याप्ति दोष दिखाने के अलावा अन्यकार दूसरी तरहम भी दोपदार्गन कराते है । वह भेदवादीसे पूछते हैं कि द्रव्यसे भिन्न माने गये गुणोको तुम मूर्त કર્યાનું ફન્દ્રિયગ્રાહ્ય માનતે હો યા અમૂર્ત કર્યા દ્રિય-બગ્રાહ્ય? યતિ મૂર્ત कहोगे, तो परमाणु अतीन्द्रिय द्रव्य माना जाता है वही नही रहेगा, क्योकि मूर्त या इन्द्रियबाह्य गुणके आधार होनेसे परमाणु भी इन्द्रियग्राह्य हो जाएंगे, और ऐसा हो तो अतीन्द्रियत्वके न रहने से उनका परमाणुत्व भी कसे रहेगा ? यदि गुणोको अमूर्त कहोगे, तो वे कभी भी इन्द्रियनान के विषय ही नहीं बनने चाहिए, किन्तु वट, ५८ आदिम इससे उल्टा है। अतएव एकान्त भेद५क्षम गुणोको केवल मूर्त अथवा केवल अमूर्त मानने से उक्त दोप आने के कारण उन्हें अभिन्न मानना चाहिए । ऐसा मानने पर उक्त दोप नही आते । जहाँ द्रव्य स्वयं ही भूर्त अर्थात् इन्द्रियग्राह्य हो वहाँ उसके गुण मूर्त और जहां द्रव्य स्वयं ही अमूर्त हो वहाँ उसके गुण अमूर्त मानने चाहिए। ऐसा होनेसे अतीन्द्रिय परमाणु के गुण अतीन्द्रिय ही है और ऐन्द्रियक ५८, / ५८ आदिके गुण ऐन्द्रियक है। । प्रस्तुत चर्चा का प्रयोजन सीसमईनिफारणमेत्तत्थोऽयं को समुल्लावो । इहरा कहा मुहं च त्यि एवं ससमयस्मि ॥२५॥ ण विअस्थि अण्णवादोण कितव्यामोजिणोवएसस्मि । तं चैव य मता अण्णता ण याति ॥२६॥

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