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मैं तो अनेक वर्षोंसे निश्चिततया मानता तथा कहता आया हूँ कि स्वामी समन्तभद्र धर्मकीति और अकलकके बीच कभी भी हुए है । शायद वह समय ईसवी ७वीका उत्तरार्ध और ८वी का प्रारम्भतक हो सकता है । मेरे इस मन्तव्य के अनेक अकाट्य प्रमाण और भी उपलब्ध हुए है । जैसे-जैसे वोद्ध-दर्शन के नयेनये ग्रन्थ प्रकट होने लगे है और जैन ग्रन्योके साथ उनकी तुलना की जाती है, वैसेवैसे सिद्धसेन और समन्तभद्र के समयका प्रश्न अधिकाधिक सुलझता जाता है । परन्तु यहाँ इसका विस्तार अनावश्यक है ।
સ્વામી સમન્તમવ્ર પછી શતાબ્દીલે હો યા સાતવી શતાબ્દી, સસે નળી असाधारण योग्यतामे कोई अन्तर नहीं पडता । इसी तरह सिद्धसेन दिवाकर विक्रमीय पंचम शताब्दी के हो या उत्तरवर्ती, तो भी उनकी योग्यता घटने-बढनेवाली नही । हम तो समयका विचार केवल ऐतिहासिक श्रृंखलाको ठीकसे समझने के लिए करते हैं, न कि योग्यता एव महत्ता की कसौटीके तौरपर बुद्ध और महावीरके समयमे भी उनके अनेक शिष्य सामान्य कोटिके और कभी-कभी । अयोग्य भी हुए ऐसा हम जानते है, और १९वी - २०वी सदीके कई स्त्री-पुरुष असावारण बौद्धिक एव चारित्रीय योग्यतावाले हुए या हो सकते है, यह भी हम जानते है | फिर समयके पौर्वापर्य के साथ महत्ता एवं साम्प्रदायिक श्रेष्ठताका अभिमानिक सम्बन्ध जोडकर हम जान-बूझकर सत्यको उपेक्षा क्यों करे ? आज जो मैं मान रहा हूँ, उसे भी बलवत्तर प्रमाणसामग्री मिलनेपर छोड़ देनेमे मुझे सकोचके बजाय और भी प्रसन्नता होगी ।
सरितकुंज, अहमदाबाद ९
१५-१२-६१
सुखलाल