________________
प्रथम काण्ड : गाया-४१
मनुष्यपना अर्थात् अमुक निश्चित आकार और गुणधर्मका होना और दूसरे आकार तथा गुणधर्मका न होना। इससे ऐसा फलित होता है कि मनुष्य स्व-रूपसे मनुप्य है, ५२-रूपसे नही । स्व-रूप एव पर-रूपसे उसका अक्रमसे अर्थात् एक साथ निरूपण करना हो तो उसे अवक्तव्य ही कहना पडेगा। इस तरह मनुष्य, अमनुष्य
और अवक्तव्य ये तीन भग होते ही वाकी के भग भी बन जाते है।' अर्थपर्याय तथा व्यजनप यमे सात भगोका विभाजन
एवं सत्तवियप्पो वयणपहो होइ अत्यपज्जाए ।
बंजणपज्जाए उण सवियप्पो णिवियप्पो य ॥४१॥ अर्थ इस तरह सात प्रकारका वचनमार्ग अर्थपयिम होता है और यजपर्यायमे तो सविकल्प और निर्विकल्प वचनमार्ग होता है।
विवेचन पर्याय अर्थात् भेद या विशेष । भेद होने के कारण वह (पर्याय) देश, काल और स्वरूपसे परिमित होता है और जो परिमित होता है वह अमुक स्वरूप धारण करने पर भी दूसरे स्वरूपोंसे व्यावृत्त ही होता है। इस तरह भेदमे अमुक स्वरूपसे अस्तित्व और दूसरे स्वरूपसे नास्तित्व सिद्ध होता है। इसी अस्तित्व और नास्तित्व के कारण कभी वह मस्ति' २०६से, तो कभी 'नास्ति' शब्दसे व्यवहृत होता है, और उसका यह अस्तित्व एव नास्तित्व अक्रमसे अर्थात् एक साथ न कहे जा सकने के कारण वह भेद अवक्तव्य भी है। इस तरह अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य --ये तीन भग पर्याय में सिद्ध होने पर वाकीके चार भी सिद्ध हो जाते हैं। सात भग
१ तत्वका जैसा सम्मपित हो वैसा स्वरूप आपके द्वारा कभी प्रतिपादित हो ही नहीं सकता, फिर भी मानवव्यवहार तो शब्दके द्वारा ही चलता है, अतएव शब्द संकेत द्वारा वस्तुका आशिक व साकेतिक रूप प्रतिपादित भी कर सकता है। इस तरह तत्वके अनभिलाप्य (अवthoय) और अभिलाप्य (वक्तव्य), ऐसे दो स्वरूप ध्यानमें आते हैं। ऐसे दो स्वरूपोंका सूचन उपनिषदों एव जैन आगमा स्पष्ट है । अनमिलाप्यको वक्तव्य शब्दसे भी सूचित किया जा सकता है, परन्तु अवतव्य शब्दका एक दूसरा भी अर्थ है जो सप्तमगी ताकिक समर्थकोंने किया है और यहाँ विवेचनमें हमने उसीको लिया है।
सप्तमीकी कमविकासी एव ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक चर्चा विशेषरूपाने जानने योग्य है । ऐसी चर्चा न्यायावतारवातिकवृत्ति की प्रस्तावना प० श्री दलसुखमाई मालपणियाने की है | स्यादाद, नयवाद तथा सप्तमगीक विशेष अभ्यासीके लिए वह अवश्य पठनीय है। सरलतासे इतना भाग सुलभ हो इस आशयसे प्रस्तुत ग्रन्थके एक परिशिष्टमें उस चर्चाको अक्षरश उद्धृत किया है।