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सन्मति-प्रकरण वस्तुत. पुरु५ कसे स्वरूपवाला है इसका कथन और उसके द्वारा जीवके स्वरूपका निश्चय
ण य होइ जोवणत्यो बालो अण्णो वि लज्ज ण तेण । ण वि य अणागययगुणपसाहणं जुज्जइ विभत्ते ॥४४॥ जाई-फुल-रूप-लखण-सणा-संबंधो अहिायरस ।। बालाइभावविद्ववियरस जह तरस संबंधो ॥ ४५ ॥ तेहि अतीताणायदोसगुणदुगुंछणऽभुवगर्महि । तह बन्ध-मोक्त-सुह-दुक्खपत्थणा होइ जीवर ॥ ४६ ।।
अर्थ युवावस्था में विद्यमान पुरुष वालक नही है अर्थात् भिन्न है और वह मात्र भिन्न नहीं है, क्योकि यदि वह भिन्न हो तो वालचरितसे लज्जित न हो । इसी तरह युवक और वृद्ध अत्यन्त भिन्न हो तो भावी आयुष्यके लिए गुणोकी साधना भी नही घट सकती (अत. वे अभिन्न
जाति, कुल, रूप, लक्षण, नाम और सम्वन्धक द्वारा एकरूप જ્ઞાંત હોનેવાજે ચીરવાયાવિ વસ્યાયો દ્વારા વિનષ્ટ હોનેવા उस पुरुपको जिस तरहका सवध घटित होता है;
तथा अतीत दोपकी जुगुप्सा एव भावी गुणकी पसंदगीके द्वारा उस पुरुषका जिस प्रकारका सम्बन्ध घटित होता है, अर्थात् जिस तरह पुरुपमे भेदाभेदका सम्वन्ध निष्पन्न होता है, उसी तरह जीवमे बन्ध, मोल, सुख एवं दुःखकी भावना होती है। ___ विवेचन यहां पुरुषमे भेदाभेद दो तरहसे सिद्ध किया गया है। पहलेका, ही उदाहरण ले। उसमें चालक और युवकके बीचका मेद स्पष्ट है। इस भेदके रहनेपर भी यदि भूत-वाल्य एवं वर्तमान यौवनके बीच एक तत्व न हो, अथवा वर्तमान और भावी वृद्धपके वीच एक तत्त्व न हो, तो पूर्वके दोषके स्मरण युवावस्था में जो लज्जा आती है और युवावस्याम भावी सुखके लिए जो प्रयत्न देख) जाता है वह कभी सम्भव नही हो सकता। फलत यही सिद्ध होता है कि पुरुष भेदाभेद उभयरूप है।