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सन्मति-प्रकरण पर्यायमे होते है ऐसा जो कहा है, वहाँ पर्यायसे अभिप्रेत केवल अर्थपर्याय ही है, व्यजनपर्याय नहीं, क्योकि व्यजनपर्याय यानी दसापेक्ष गन्दप्रतिपाय पर्याय । जो पर्याय द द्वारा प्रतिपाच होने से व्यजनपर्याय कहलाता हो वह वक्तव्य होनेसे अवक्तव्य कसे कहा जा सकता है ? इसीलिए अवक्तव्य और अवक्तव्यमिश्रित अन्तिम तीन भाग व्यजनपर्यायमे सम्भव नहीं है। उसमे तो सिर्फ सविकल्प अर्थात् नास्ति और निर्विकल्प अर्थात् अस्ति ये दो भग ही हो सकते है और बहुत हुआ तो सविकल्प और निविकल्प उभय८५ तीसरा भाग भी घटाया जा सकता है। इसी कारण सम्भवत अर्थपर्यायमे सात और न्यजनपायमें दो भग कहे गये है।
पुरु५ सदका व्यजनपर्याय पुरुषत्व और घट गदका घटव ये दोनो सदृपर्यायप्रवाहके रूपमे एक-एक होने से निर्विकल्प अर्थात् सामान्यरूप है, और प्रतिक्षण નવે-નો હત્પન્ન ઢોવાને પર્યાયો દારા મિત્ર હોતે તે સંવત્ન કર્યા, विशेषरूप भी है। इस तरह ये दोनो पर्याय सविकल्प और निविकल्परूप होने पर । भी अवक्तव्य नहीं हैं, क्योंकि ये पर्याय अनुक्रमसे पुरु५ और घट २ाद द्वारा कहे । जाने के कारण वक्तव्य है, परन्तु प्रतिक्षण उत्पन्न और विनष्ट होनेवाले जो शब्द-/ निरपेक्ष अर्थपर्याय है, उनमें तो अवक्तव्य आदि भग भी घटाये जा सकते हैं। केवल पर्यायाथिक नयकी देशना पूर्ण नही है ऐसा कयन
जह दवियमप्पियं तं तहेव अस्थि त्ति पज्जवणयारा । ण य ससमयपनवणा पज्जवणयमेत्तपडिपुण्णा ॥ ४२ ॥
अर्थ जो द्रव्य जिस प्रकार से अपित अर्थात् उपस्थित हो वह । द्रव्य वैसा ही है ऐसी पर्यायायिक नयकी देशना है, परन्तु द्रव्यनिरपेक्ष अर्थात् मात्र पर्याय नयमे पूर्ण होनेवाली वह देशना स्वसमयका प्ररूपणा नही है।
केवल द्रव्यायिक नयकी देशनाका जो वक्तव्य है उसका युक्ति हारा कयन
१ यहाँ प्रस्तुत गाथाका जो अर्थ लिखा है वही अन्यकारको विवक्षित है या नहीं, यह बहुत विचार करने पर भी निश्चित नही किया जा सका है। टीकाकार श्री अभयदेवसूरि तथा श्री यशोविजयजी उपास्यायने भी इस गाथाका अर्थ निश्चित रूपसे नहीं लिखा। उन्होंने भी कल्पनाएँ दौडाई है। अत विचारकोको परम्पर। जाननेका प्रयत्न करना चाहिए । देखो 'द्रव्यगुणपर्यायनोरास' ढाल ४, दोह। १३ ।