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प्रयम काण्ड गाथा-२५
१३ વિવેવન નિરપેક્ષ રને પર લોકો નો પણ અનુભવસિદ્ધ વ શાસ્ત્રીય प्रवृत्तिम कसे वाव आता है, यह यहाँ आत्माको लेकर बताया गया है । यदि केवल द्रव्यास्तिक पक्ष ले, तो उसके मतमें आत्मतत्व एकान्त नित्य होनेसे अपरिवर्तनशील है, और यदि केवल पर्यायास्तिक पक्ष ले, तो उसके मतमे वह मात्र क्षणमगुर है। इन दोनो पक्षोम ससार, सुख-दुखका सम्बन्ध, सुखकी प्राप्ति और दुखके त्यागके लिए प्रयल, कर्मका वर्ष, उसकी स्थिति, मोक्षकी इच्छी और मोक्ष इनमेसे कुछ भी घट नही सकता, क्योकि एकान्तनित्य पक्षमे कूटस्थता के कारण भत्मिामे कपायविकार या लेपका सम्भव ही नही है और अनित्यपक्षमे क्षणभगुरता के कारण आत्मा प्रत्येक क्षणमे नष्ट होकर नया-नया पैदा होता रहता है, इसलिए ध्रुवत्वके साथ मेल खाये ऐसे अनुसन्धान, इच्छा, प्रयल आदि कोई भाव घट ही नहीं सकते। इसीलिए यदि ये दोनोनय निरपेक्ष रूप से अपने-अपने विषय में प्रवृत्त हो तो वे मिथ्यादृष्टि है और यदि परस्पर सापेक्ष रूपसे प्रवृत्त हो तो सम्यग्दृष्टि है। ये ही नय कभी सम्यग्दृष्टि नहीं होते और कभी होते है, इसके कारणका दृष्टान्तक द्वारा समर्थन----
जहणेयलक्मणगुणावरुलियाई मणी विसंजुत्ता । स्यणावालवचएसं न लहंति महग्धमुल्ला वि॥ २२॥ तह णिययवायसुविणिच्छिया वि अण्ण्णोण्णपक्वणिरक्खा । सामसणसदं सर्व विषया ण पाति ॥ २३॥ जह पुण ते पेव मणी जहागुणविससँभागपडिबद्ध।। 'रयणावलि' ति भण्ण जहंति पाडिपासण्णा ॥२४॥ तह स-वे णयवाया, जहाणुरूवविणिउत्तपत्त-वा
सन्मसणस६ लहन्ति - ण विसेससाणाश्रो ॥२५॥ अर्थ जिस तरह अनेक लक्षण और गुणवाले वडूय आदि रत्न बहुत मूल्यवान् होने पर भी बिखरे हुए हो तो रत्नावली या हारका नाम नही पाते,
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१ तुलना करी विशेषाव यकभाष्य गा २२७१ ।