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सन्मति-प्रकरण
कार्य या कारणकी कल्पना ही झूठी है, सब-कुछ मात्र द्रव्यरूप ही है। इन तीनो वादोको लेकर अन्यकार कहते है कि ये वाद यदि अपने-अपने पक्षका एकान्त रूप से समर्थन कर और दूसरा पक्ष मिथ्या है ऐसा कहे, तो सापेक्ष प्रतिपादन न करने से मिथ्या ही है।
સાપેક્ષ પ્રતિપાદન અર્થાત્ સપને પાછા ફસ તરહ પ્રતિપાદન કરના નિસરો दूसरे पक्षकी मर्यादाका भग न हो और अपने पक्षकी मर्यादा भी सुरक्षित रहे। अनेकान्तज्ञ मर्यादा और उसकी व्यवस्था कैसे करें इसका कयन
णिययवाणिज्जसा सवनया परवियालणे मोहा ।
ते उणण दिसमश्रो विभयई सच्चे व अलिए वा ॥ २८ ॥ अर्थ सभी नय' अपने-अपने वक्तव्यमे सच है और दूसरे के वक्तव्यका निराकरण करने मे झूठे है, अनेकान्त शास्त्रका जाता उन नयोका ये सव्य है' और 'येझूठे है' ऐसा विभाग नही करता। - विवेचन प्रत्येक नयकी मर्यादा अपने-अपने विषयका प्रतिपादन करने तक ही परिसीमित है। इस मर्यादाम जबतक वे रहते हैं तबतक सभी सर हैं, किन्तु इस मर्यादाका उल्लघन करके जब वे दूसरे प्रतिपक्ष नयके वक्तव्यका निराकरण करने लगते है, तभी मिथ्या हो जात है । इसलिए प्रत्येक नयकी मर्यादा समझनेवाला
और उनका समन्वय करनेवाला अनेकान्तज्ञ सभी नयोके वक्तव्यको जानने पर भी 'यह एक नय सत्य ही है और दूसर। असत्य ही है' ऐसा विभाग नहीं करता । उल्टा, वह तो किसी एक नयके विषयको दूसरे विरोधी नयके विषय के साथ सकलित करके ही यह सत्य है' ऐसा निर्धारण करता है । इस तरह अनेकान्तवादी कार्यको कचित् ही सत् या असत् कहे तथा द्रव्यको अद्वैत या देत भी कयचित् ही कहे। दोनो मूल नयोंकी विषय मर्यादा
હવયવરવું સવં સવૅળ વિવિખ્યું છે - भारद्धो य विभागो पज्जववत्तवमग्गो य ॥ २६ ॥
र्य राव, सब प्रकार से, सर्वदा जो भेदरहित हो वह द्रव्यास्तिकका वक्तव्य है , और विभाग या भेद का प्रारम्भ होते ही वह पर्यायास्तिकक वयिका मार्ग बनता है।
१ तुलना करो विशेषावश्यकभाष्य गाथा २२७२ ।