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लिखित पद्यप्रवन्धम' भी है। गद्यप्रवन्धमे वत्तीसियोकी पत्तीस सख्या अर्थात् समझी जाती है, जबकि इसमे तो 'बत्तीस वत्तीसियाँ' ऐसा स्पप्ट निर्देश है। इस पचप्रवन्धके पश्चात् रचित प्रभावकचरित्रमे वत्तीस स्तुतियो द्वारा स्तुति करने का कथन तो है ही, परन्तु इसके अतिरिक्त इन बत्तीस वत्तीसियोका थोड़ा विवरण भी दिया है । वह इस प्रकार है । एक वीरस्तुति, एक न्यायावतार
और तीस वत्तीसियाँ । इन बत्तीस वत्तीसियोके अतिरिक्त ४४ श्लोक-परिमाण 'कल्याणमन्दिर' बारा दिवाकरने स्तुति की थी, ऐसा भी उसमे उल्लेख है। इस तरह जिस 'कल्याणमन्दिर' को नाम पहले के दो लिखित प्रबन्योमे नही है, वह प्रभावकचरित्र दाखिल होता है और शायद इसी कारण इन दो प्रवन्धोम सिद्धसेनका कुमुदचन्द्र नाम नहीं है, परन्तु प्रभावकचरित्रमे 'दीक्षा देते समय गुरु वृद्धवादीने सिद्धसेनका कुमुदचन्द्र नाम रखा ऐसा कथन है । यहाँ पाठकोको याद રતના વહિ વિ જ્યામન્દિર અન્તિમ પદ્યમ માવાનુ વિશેષ રૂપને जो कुमुदचन्द्र' शब्द आता है, उसे २लेषात्मक मानकर उसपरसे जन-परम्पराके विद्वान् सिद्धसेनका दूसरा नाम कुमुदचन्द्र सूचित करते है । प्रवन्धचिन्तामणिमें वत्तीसियोकी संख्या अथवा कल्याणमन्दिरका उल्लेख ही नही है, परन्तु चतुવગતિ-પ્રવશ્વમે વત્તfસયોજી વસ્તી સસ્થા તથા સ્થળન્દિરા પુન જેવ आता है। इस प्रकार पाँचो प्रवन्धोके उल्लेखोको देखने पर अधिकसे अधिक इतना ही फलित होता है कि पत्तीस बत्तीसियाँ और कल्याणमन्दिर इस तरह पुल ततोस कृतियाँ दिवाकरकी है।
न्यायावतार' पत्तीस श्लोक-परिमाण है । प्रभावकचरित्रके कथनानुसार वह भी बत्तीसमेसे एक बत्तीसी है। सबसे प्राचीन प्रवन्धो में वत्तीसियोकी वत्तीस
१. "तस्सागस तेणं पारद्धा जिणथुई समताहि।
पत्तोसाहिं पत्तीसियाहि उद्दामसग ॥ यथा" इस गाया अनन्तर पृ० २३ के टिप्पण नं० १ में उल्लिखित चार लोक पाते है।
"एवं फमक अंतिमवत्तीसियाय पज्जन्ते । पडियुन्नगोवगा पयंसिया पासपटिम ति॥"
लिखित पधप्रबन्ध २ देखो पृ० २३। ३. “जननयनकुमुदचन्द्र" इत्यादि ।