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है और अपने मतके साथ सन्मतिके वक्तव्यको कोई भी विरोध नहीं है, ऐसा भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। इससे प्रतीत होता है कि उनके समयतक दिगम्वर परम्परामे भी समितिका प्रामाण्य स्वीकृत हो गया था।
धवलामे (पृ० १५ ) सन्मतिकी पाम ०वणा' इत्यादि गाया ( १६ ) उद्धृत करके उसके साथ अपने मन्तव्यका किस तरह विरोध नहीं है, इसका स्पष्टीकरण किया है। यही वस्तु पुन सिद्धसेनके नामके साथ उक्त गाथाको
१. धवला भा० १: पृ०
१२
सन्मतिकी गाया:
१.३, ४ १.११
३.४७ ३.६४, ६५
३.४७
१६२ ३८६
३
घवला भा० ८:
१.६ १.११, १२
३३७
जयधवला भा० १: २१८
१.३, ५
२२०
२४५ २४८ २४९ २५२-३
३.४७ १.११, १२, १३ १.१७, १८, १९, २०, २१
१.८, ३१
२५६
१.२८
१.६
२५७ २६० ३५१ ३५२ ३५६ ३५७
२.४ २५, ९ २.१२, १३
२.३
३५९
१०८
पत्तीसी : ३.१६