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१०२ सम्बोधित करके नमस्कार करते है। दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्दने भी प्रवचनसार' ( १. १५-६ ) मे स्वयम्भू' शब्दका अर्थ जैन दृष्टि से किया है। ____ इन दोनोमे एक अथवा दूसरे रूपमे प्रयुक्त अनेक समान शब्द खास ध्यान आकर्षित करते है। तत्वज्ञानके द्वारा स्तुत्य देवकी महत्ता दिखलाते हुए अमुक प्रकार के तत्वकातून ही प्रतिपादन किया है, दूसरे किसी ने नहीं ऐसी अन्ययोगव्यवच्छेदकी शैली दोनोमे एक-जैसी है। इसी शेलीको आगे जाकर विद्यानन्दीन आप्तपरीक्षामे तथा हेमचन्द्रने दूसरी द्वारिशिका अपनाया है। "हे प्रभो । तेरी पद्धसि तेरी तुलना करने के लिए निकले हुए दूसरे तपस्वी अन्तमे हारकर तेरी शरणमे आये" यह समय वस्तु दोनोकी स्तुतियोमे जमीकी तसा है।' समन्तभद्र और सिद्धसेन दोनोने अपनी-अपनी स्तुतिम इन्द्रकी सहस्राक्षताकी प्रसिद्धिके ऊपर जो कल्पना की है, वह विम्ब-प्रतिविम्व जैसी है । दोनो स्तुतिकारोकी स्तुतिका अर्थोपादान मुख्यत तत्वज्ञान है । दोनो ही जैन तत्त्वज्ञानके आत्मारूप अनेकान्तकी विशिष्टता अनेक प्रकार से दिखलाकर उसकी द्वारा उसके प्ररूपकके रूपमे अपने-अपने स्तुत्य देवोका महत्व गाते हैं । दोनोकी स्तुतियोमे यत्र तत्र स्तुतिके वहाने जैन तत्वज्ञान के विविव अग और जन आचारफे विविध अशोको ही विशिष्टता दृष्टिगोचर होती है । वस्तुत दोनों स्तुतियोका आर्थिक उपादान एकमात्र जन तत्वज्ञान और जैन आचार है।
१. तुलना करो बत्तीसी १.२६-८ और ३.२० के साथ स्वयाभू० १९, २५, ३३। २. यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मषं तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । वनोकस: स्वश्रमवन्ध्यबुद्धयः शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥
स्वयम्भू० १३४ अन्येऽपि मोहविजयाय निपीडय कक्षाમમ્પત્યતાત્ત્વયિ વિશ્વમાનનાના अप्राप्य ते तव गति कृपणावसाना
पामेव वीर शरणं ययुरुद्वहन्तः ॥ वत्तीसी २.१० ३. स्वयम्भू० ८९ और बत्तीसी ५.१५ ।
४. उदाहरणार्य स्वयम्भू० १४, २२-५, ३३, ४१-४, ५२, ५४, ५९, ६०, ६१-५, ८२, ९८-९, १००, १०१, ११८-२० और बत्तीसी १२०॥ २४, २६, २८-९; २.२५, ३.३, ८, १०-१; ४.१९ आदि ।