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सूचित करता है कि मल्लवादी और उनके टीकाकार सिंहगणिक्षमाश्रमणके सम्मुख दिनांगसे उत्तरवर्ती किसी धर्मकीति जैसे प्रखर ताकिकका साहित्य न था। सिंहगणिक्षमाश्रमणने कुमारिलका सूचन भी कही नहीं किया है, जव कि वैदिक पूर्वमीमासाके मन्तव्योके वर्णन-प्रसगमे कुमारिल जैसे धुरन्धर पूर्वपक्षीका उल्लेख आना क्रमप्राप्त है। ___ इम विचारसरणीसे मुनि श्री जम्बूविजयजीने तथा प० श्री दलसुख मालવખયાને અપને-અપને ટેલ્લો મવાવના અસ્તિત્વ-સમય વિતીય પત્તમ
ताब्दीका पूर्वार्ध स्थिर किया है, जैसा कि हमने वहुत वर्षीक पहले ही सन्मतिकी गुजराती प्रस्तावनामे लिखा था। ___ मल्लवादी सन्मतिके वृत्तिकार है और उन्होने अपनी नयचक्रपरकी स्वीप वृत्ति समितिको गाथा भी उद्धृत की है।' सन्मति सिद्धसेन दिवाकरको कृति है। इसलिए सिद्धसेन दिवाकरका समय विक्रमको चौथी शताब्दीका उत्तरार्ध और पांचवी शताब्दीका पूर्वार्ध, जो हमने पहले समितिकी गुजराती प्रस्तावनाम सूचित किया था वह, निधि है।
५० श्री दलसुख मालवणियाने अपने न्यायावतारवातिकवृत्ति' के संस्करण (सिंधी सिरीज ) मे 'न्यायावतारको तुलना' शीर्षक प्रथम परिशिष्टमे जोन्याया
१. देखो 'आत्मानन्द प्रकाश में प्रकाशित लेख (१)'श्री द्वादशानियचक्र : महाशास्त्र' के अन्तर्गत 'आ० श्री मल्लवादी क्षमाश्रमणनो समय' (पृ० १८८ से, पु० ४५, अ० १०, जून १९४८); (२) 'नयच अन्य अने बौद्ध साहित्य' (पृ० ९ से, पु० ४९, अं० १, १५ अगस्त, १९५१ तथा अं० २, पृ० १८, १५ सितम्बर, १९५१)।
२. देखोराजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रन्य' में 'आचार्य मल्लवादीका नयचक्र' नामक लेख, पृ० २१०; तथा प० श्री दलसुख मालवणिया द्वारा सम्पादित धर्मोत्तरप्रदीप' (प्रकाशक : काशीप्रसाद जायसवाल अनुशीलन-सस्या) की प्रस्तावनामें पृ० ५४ पर 'भल्लवादीकृत धर्मोत्तरटिप्पण।'
३. देखो मुनि श्री जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित सवृत्तिक नयचक्र, पृ० ३५ । वह गाथा इस प्रकार है
णिययवणिज्जसच्चा सवणया परवियालणे मोहा । ते पुण अदिसमओ विभजइ सय व अलिए वा ॥ १.२८ ॥