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योग्यता रखते हो, ऐसे कोई दूसरे अभयदेव विक्रमकी ११वी शतीके पूर्णिम विद्यमान हो, ऐसा अवतक ज्ञात नही हुआ है।
सिद्धसेन, माणिक्यचन्द्र और प्रभाचन्द्रको प्रशस्तियोम निदिष्ट अभयदेव तो निर्विवाद रूप से प्रस्तुत सन्मतिके टीकाकार अभयदेव ही है, क्योकि इन तीन પ્રશસ્તિયોને જમવા નિ પ્રદ્યુમ્નસૂરિ શિષ્ય મૌર વમવિ રામ तकन्यके रचयिता ताकि विद्वान् के रूपमे किया गया है। वादमहार्णव किसी दूसरे स्वतत्र अन्यका नाम नहीं है, परन्तु प्रस्तुत सन्मतिकी तत्त्ववोधविवायिनी टीकाका ही दूसरा अनुरूप नाम है। सिद्धसेनके द्वारा दी गयी वश-परम्पराके अनुसार वह स्वयं अभयदेवसे नवे पुरुष है। माणिक्यचन्द्र, उनकी दी हुई १२शपरपरा अनुसार, अभयदेवसे दस पुरुष है।
सिद्धसेनने मुज राजा मान्य अभयदेवके एक शिष्य धनेश्वरका और माणिक्यचन्द्र ने अभयदेवके शिष्य जिनेश्वरका वर्णन किया है। प्रभाचन्द्र ने अभय: देवके शिष्य धनेश्वरको त्रिभुवनगिरिक स्वामी कदमराजका मान्य लिखा है।' __ यदि इन प्रशस्तियोके पा० और उनमें उल्लिखित बाते सही हो, तो ऐसा मानना चाहिए कि या तो अभयदेवके धनेश्वर और जिनेवर दो भिन्न ही शिष्य थे, या फिर एक ही शिष्यके दो नाम थे। इसी प्रकार सिद्धसेनकी प्रशस्तिका भुज और प्रभाचन्द्रकी प्रशस्तिके त्रिभुवनगिरिका स्वामी कर्दमराज या तो भिन्न व्यक्ति थे, या फिर एक ही व्यक्ति के दो नाम थे। सम्भवत. कदमराज द्वारा सम्मानित धनेश्वर और मुज द्वारा सम्मानित धनेश्वर ये दोनो भिन्न भी हो। पाहे जो हो, ऊपरको सब हकीकतोके अपरसे अभयदेवका इतिहास सामान्यतः ऐसा फलित होता है वह चन्द्रकुलीय और चन्द्रगच्छके प्रद्युम्न सूरिक शिष्य थे।
નો સમય વિમો રંસવી વીજ કતરાર્ધ ર ય રવી તેવી પૂર્વાર્ધત है। उनके विद्याशिष्यो एव दीक्षाशियोका परिवार बहुत बडा और अनेक भागोमें विभक्त था। इस परिवारम अनेक विद्वान् हुए थे और उनमेसे कई विद्वानाने राजाओके समक्ष सम्मान भी प्राप्त किया था। उनकी जाति, माता-पिता अथवा जन्मस्थानके विषय में कुछ भी जानकारी उपलव नही है, फिर भी उनका विहारक्षेत्र राजस्थान और गुजरात था, ऐसा मानने के प्रवल कारण है। सन्मतितकको टीकाके अतिरिक्त उनकी दूसरी कृतिके वारमे कोई प्रमाण नही है।
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१. सन्मतिटीका पृ० ३०८ का दूसरा टिप्पण।