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पर्यायास्तिक-प्रकृतिक है, ऐसे सन्मति का० १ गा० ४-५ के कयनमे सूचित की गयी है।
२. स्वयम्भूस्तोत्र ११४ मे आगमप्रसिद्ध त्रिपदीके कयनको सर्वज्ञके लक्षणके रूपमे दिखलाया है। यही भाव सन्मति का० ३ की गाथा ३ मे आनेवाले 'प्रतीत्यवचन' के निरूपणका है।
३ अनेकान्तवादमे दृष्टान्तका साद्गुण्य और एकान्तवादमें उसका वैगुण्य है, यह बात स्वयम्भूस्तोत्र श्लो० ५४ मे और सन्मति का० ३ गा० ५६ मे एकजैसी है।
४. प्रत्येक नयको यथार्थता और अयथार्थता किस-किस तरहसे है, यह वात ओप्तमीमासाके श्लो० १०८ में और सन्मति का० ३ गा० १३-४ मे है।
५. सन्मति का० १ गा० ३६-४१ मे सप्तभगीवादको चर्चा सक्षेपसे नय। प्रसगमे आती है। यही वाद व्यापक रूपसे आप्तमीमासाके २लो० ९ से अन्ततक
બાત હૈ ઔર ઇસમે બનવા વિરોધી માંને નાનેવા મન્તવ્યો સમન્વય અને જાન્તदृष्टि से किया गया है।
६ स्वयम्भूस्तोत्रके २लो० ५२ मे प्रमाण एव नयका स्वरूप दिखलाया है। वैसा स्वरूप न्यायावतारके श्लो० २९ मे व्यक्त किया गया है।
७ सत्-असत्, नित्यत्व-अनित्यत्व, एकरप-अनेकत्व, सामान्य-विशेष आदि પરસ્પર વિરોધી માને નાવા નો પક્ષ વાર્શનિ પ્રવેશ પહલે વિવાદ વડે करते आये है, उनका समन्वय समन्तभद्र और सिद्धसेनने अनेकान्तके समर्थनके रूपमें अपनी-अपनी कृतिमे, प्रसग आनेपर, एक-जसा किया है।
८. कार्य-कारणका, गुण-गुणीका और सामान्य-विशेषका एकान्त भेद या एकान्त अभेद नहीं है, यह बात आप्तमीमासाके २लो० ६१-७२ मे तथा सन्मति के तीसरे काण्डमे समान रूपसे, और फिर भी अपने-अपने विशिष्ट ढगसे, दोनो आचाऱ्याने स्थापित की है।
९ हेतुवाद और आगमवादको पृथक्करण तथा समन्वय आप्तमीमासाके २लो० ७५-८ मे तया सन्मति के का० ३, गा० ४५ मे है।
१० शब्द भिन्न होने पर भी अनेकान्तको व्यापकता समान रूपसे स्वयम्भूस्तोत्रके इलो० १०१ मे और सन्मतिके का० ३ गा० २७ मे दिखलायी गयी है।
११ आप्तमीमासा ३लो० ८८-९१ मे देव और पौरुष इन दो ही कारणवादोको समन्वय है, जब कि सन्मतिके का० ३ गा० ५३ मे पाँच कारणकान्तपादका समन्वय है। .