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काफी बड़ा हिस्सा है। इस वादके कारण अनेक सम्प्रदाय, जैसे कि साख्य, आजीવર્ષા વાતિ, અપને-અપને માન્ય પ્રવર્તો પૂર્ણ આાપ્ત માનવીર હન્નીને વશ્વનો एकमात्र शास्त्ररूप मानने लगे | जैन सम्प्रदायको भी यह मान्यता अभिमत है, अत वह अपने प्रवर्तक तीर्थंकरोको ही मुख्य आप्त मानकर उनके वचनको मुख्य प्रमाणके रूप मे स्वीकार करता है, और उसके अतिरिक्त अन्य शास्त्रोको मुख्य प्रमाणरूप नही मानता । यह बात स्पष्ट करनेके लिए तथा सर्वज्ञके द्वारा कथित शास्त्रका स्वरूप दिखलाने के लिए ही सन्मति और आप्तमीमासाकी रचना हुई है।
यहाँ सिद्धसेन और समन्तभद्र के पौर्वापर्य या समय विषयक प्रश्नकी भी संक्षेपमे चर्चा कर लेनी चाहिए | सन्मतिको गुजराती आवृत्ति ( ई० १९३२) मे सिद्धसेनका समय विक्रमकी पाँचवी शती माना था । इसके पश्चात् इस विपयमे पक्ष-प्रतिपक्ष रूप से काफी चर्चा हुई है । मैंने भी भिन्न-भिन्न प्रसगपर इस विपयमे 7 अपने विचार उपस्थित किये ही है । परन्तु अब में उसी पुराने निश्चयपर માયા હૈં જિ સિદ્ધસેન વિમળો નીચી શતીને છત્તરાર્થ બૌર શાયવ પાઁચવી શતી प्रारम्भतक रहे है । इस विपयमे स्पष्ट प्रकाश डालनेवाला प० श्री दलसुखभाई मालवणिया का वक्तव्य सास पठनीय है, जो न्यायावतारवातिककी प्रस्तावना ( पृ० १४१ ) मे है |
अब रहे स्वामी समन्तभद्र | मैने अकलकग्रन्यत्रय तथा न्यायकुमुदचन्द्र ( भाग २ ) के प्राक्कयनोमे उनको धर्मकीर्तिके उत्तरकालीन स्थापित किया है । इस विचारके परिवर्तनका कोई भी प्रवल कारण अभीतक मुझे उपलब्ध नही हुआ है, प्रत्युत इस विचारके समर्थक अनेक प्रमाण उत्तरोत्तर अधिक मिल रहे है।
यहाँ प्रश्न होता है कि पूज्यपादने अपने व्याकरणमे 'चतुष्टय समन्तभद्रस्य' ऐसा उल्लेख किया है, तो समन्तभद्र पूज्यपाद के पश्चात् कैसे हो सकते है ? परन्तु समन्तभद्रके व्याकरणविषयक अन्धका कोई सुनिश्चित प्रमाण प्राप्त नही है, 'और उनकी विद्यमान कृतियो मे ''चतुष्टय' की समर्थक कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती । ऐसी स्थितिमे अधिक सम्भव यही है कि पूज्यपादका निर्देश चन्द्र
१. 'अकलंकप्रन्यत्रय' तथा 'न्यायकुमुदचन्द्र' भा० २ के प्राक्कथन तथा 'भारतीय विद्या', वर्ष ३, पृ० १५२ एव 'दर्शन और चिन्तन' पृ० ४६९ ७५, ४७७ ।