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'कापिलदर्शनमात्र द्रव्यास्तिकनयावलम्बी और सोगतदर्शनमात्र पर्यायास्तिकनयावलम्बी होने से परसमय है' रान्मति का० ३, गा० ४८ के ऐसे कथन के बाद सीवा ही सवाल होता है कि तव द्रव्यास्तिक एव पर्यायास्तिक उभयनयावलम्बी कणाददर्शनको स्वसमय अर्थात् सम्यग्दृष्टि मानना चाहिए या नहीं ? इसका उत्तर यह 'दोहि विनएहि गाथा ही देती है । यदि यह गाथा न हो, तो सन्मतिमे किया गया नयवादमे परसमयका विचार अधूरा ही रहता है । अत उस स्थानम यह गाया वरावर उपयुक्त है और इसीलिए मौलिक लगती है । विशेषावश्यकभाष्यमे उक्त प्रश्नका उत्तर २१९४वी गायामें स्पष्ट रूप से तथा कणादके नामके साथ आ जाता है । इसी भाँति सत्वाद और असत्वादके अपेक्षाकृत समन्वयके सगमे 'नत्य पुढची विसिद्धों गाया सन्मति में वरावर मेल खाती है, जब कि भाष्य में ऐसा नही है |
कमोवेश परिवर्तनवाली या रचनाके व्यत्ययवाली सन्मतिकी कई गाथाएँ उविशेषावश्यक भाष्यमे खोजी जा सकती है, परन्तु यहाँ तो हम उदाहरणस्वरूप एक ही गाया उद्धृत करेंगे। वह है
जावइया वयणवहा तावइया चेव होति णयवाया ।
जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥। ३.४७ ॥ सन्मतिगत यह गाथा विशेषावश्यक माध्यमे गाया क्रमांक २२६५ पर इस प्रकार फेरफारके साथ देखी जाती है
जावन्तो वयणपहा तावन्तो वा नया विसद्दाम | ते चैव य परसमया સમ્મત્ત સમુદ્રિયા સબ્વે 11
२ सन्मति मे का० १ गा० २२ से रत्नावलीका जो विस्तृत दृष्टान्त देखा जाता है और जिसमें 'रयणावली', 'मणि' आदि शब्द है, ये ही शब्द इस दृष्टान्त के सक्षेप के साथ विशेषावश्यक भाष्यकी २२७१वी गाथामे आये है | सन्मति के का १, गा० ५४ मे आया हुआ 'परिकम्मणाणिमित्त' शब्द भाष्यको २२७६वी गायामे हैं परिकम्मणत्य' के रूप में आया है । सन्मति का १, गा० २८ मे जो विचार वही विचार उसके कुछ मूल शब्दो के साथ भाष्यको २२७२ वी गाथामे आता है ।
२१०९ से २१११ तककी गाथाओंमें २१०४वीं गायामें कहा गया भाव सिद्धान्तके रूप में रखा गया है । इससे भी यह २१०४वी गाया कहींसे संवाद रूपमें उद्धृत प्रतीत होती है । इसी तरह २१९५वी गाथाका भाव २१९४वी गाथामे स्पष्ट रूपसे आ जाता है ।