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भी सन्मति का० २ में बहुत कुशलतासे विस्तारपूर्वक स्थापित किया है । गुण और गुणीके भेद तथा अभेदके विषयमे दर्शनान्तरोकी मान्यताके सामने जन दर्शनका क्या मत है, इस वातको चर्चा अपने-अपने ढगसे कुन्दकुन्दने पचास्तिकाय ( अ० १, गा० ४८-५२ ) में और सिद्धसेनने सन्मति (का० ३, गा० ८-२४,) में की है। ___कुन्दकुन्दने स्वसमय' और 'परसमय' शब्दका अर्थ एकदम आध्यात्मिक दृष्टिसे ऐसा किया है कि जो स्वपर्याय सो स्वसमय और जो परपर्याय पोद्गलिक पर्याय सो परसमय (प्रवचनसार १ १-२ तथा समयसार १२), जबकि सिद्धसेनने उस आध्यात्मिक दृष्टिका आश्रय न लेकर अपने युग एव स्वभावके अनुरूप दार्शनिक दृष्टि से स्वसमय' एवं 'परसमय' शब्दोका अर्थ किया है। वह कहते है कि स्वसमय अर्थात् स्वदर्शन और परसमय अर्थात् परदर्शन । जितने नयवाद है, उतने ही परसमय है ( सन्मति का० ३ गा० ४७ तथा ६७.)। उत्तराव्ययन ( अ० २८, गा० ५-६ १) जसे आगमोमें पर्यायसे गुणका भद स्प८८ . रूपसे माना गया है। यही विचारसरणी उमास्वातिके तत्वार्थसूत्र (५३७,' ४० ) मे स्वीकृत की गयी है। आगे जाकर कुन्दकुन्दने (प्र१० १८७, २१, ३, १२) भी उसीका अनुसरण किया है, परन्तु सिद्धसेनने इस विचारसरणीको प्रवल विरोध किया है और आगममेसे ही प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि गुण एवं पर्याय दो भिन्न-भिन्न वस्तुएं नहीं है, परन्तु ये दोनो २८८ मात्र एक ही अर्थक वोधक है । सिद्धसेनके इस मन्तव्यसे बागमके मन्तव्यका वास्तविक तात्पर्य तो स्पष्ट हुआ ही है, साथ ही शेपिकोके द्रव्यसे गुणके सर्वथा भिन्न होनेके मन्तव्यका भी निरास हुआ है। सिद्धसेनका यह मन्तव्य इतना प्रभावशाली और स्पष्ट है कि अकलक जैसे कुन्दकुन्दके अनुगामियोको भी यह स्वीकार करने के लिए वाव्य होना पड़ा और यशोविजयजी जैसे विचारकने भी इसे मजूर रखा।'
पूज्यपाद और समन्तभद्र પૂજ્યપાલ સિદ્ધસેન વિવારને પૂજ્યપાદ વેવનન્દી યહી પ્રસ્તુત વિયા वह तुलनाकी नहीं, किन्तु दूसरी ही दृष्टि से । वह दृप्टि अर्थात् पोपियकी दृष्टि
१. गण-पर्याय विषयक प्राचीन परम्परा और उसके विरुद्ध सिद्धसेनको नयं दृष्टिक पारमें व्योरेवार जानकारी सन्मति-वृत्तिके पृ० ६३१ परके ४थे पिण दी गयी है।