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घटना से सघने दिवाकरके वाकीके पांच वर्ष क्षमा करके उन्हें गुप्तवासमेसे सिद्धसेन दिवाकरके रूपमें जाहिर किया । वहाँ शिवलिंग में से कुछ समयतक साँपके फन प्रकट होते रहे, जिन्हे वादमे मिथ्या-दृष्टि लोग पूजते थे ।
दिवाकरने एक बार राजासे पूछकर गीतार्थ शिष्योंके साथ दक्षिणकी ओर विहार किया और भडोच नगरके बाहरके एक ऊँचे भागपर आ पहुँचे । वहाँ नगर एव गॉवकी गोओकी सँभाल रखनेवाले वाले धर्म सुननेकी इच्छासे दिवाकरके पास इकट्ठे हुए । उनके आग्रहपर दिवाकरने तुरन्त ही प्राकृत भाषामे उस सभा के योग्य एक रासा बनाकर तालके साथ तालियां बजाते-जाते और गोल घूमते हुए गाकर सुनाया । वह रासा इस प्रकार है :
न विमारिअ न वि चोरिअइ परदारह सगु निवारियर | योवाह वि थोव दाइ, वर्षाणि दुगु दुगु जाइ ॥ १६१ ॥
अर्थात् किसीको मत मारो, चोरी न करो, परस्त्रीका सग छोडो ओर थोडेसे भी थोडा दान करो, जिससे दुख जल्दी दूर हो । दिवाकरके वचनसे ज्ञानप्राप्त હન વાળોને વહાઁ સનળી સ્મૃતિને હિÇ 'તોરાસ’ નામાઁ સમ્પન્ન નાઁવ वसाया । दिवाकरने उस गाँव मे मन्दिर बनवाकर ऋषभदेवकी मूर्ति की स्थापना एव प्रतिष्ठा की, जिसकी पूजा इस समय भी लोग करते है ।
इस प्रकार प्रभावना करके दिवाकर भडोच गये । वहाँ बलमित्रका पुत्र वनजय राजा था। उसने दिवाकरका बहुमान किया। एक बार उस राजा के ऊपर बहुतसे राजाओने चढाई की और उसे घेर लिया। राजा धनजय डरकर दिवाकरकी शरणमे आया । उन्होने सरसोके दाने मंत्रित करके तेलके कुप्पे में डाले । वे सव मनुष्यरूप धारण करके बाहर निकले । उनका सैन्य बनाकर राजाने शत्रुओका नाग किया। इस तरह सेना बनानेसे दिवाकरका सिद्धसेन नाम सार्थक हुआ । राजा भी अन्तमे दिवाकरके पास दीक्षित हुआ ।
इस प्रकार प्रभावना करते-करते दिवाकर दक्षिणापथमे आये हुए प्रतिष्ठानपुर (पेठन ) में जा पहुँचे । यहाँ योग्य शिष्यको अपने पदपर स्थापित करके प्रायोपवेशन ( अनशन ) पूर्वक मरकर वह स्वर्गवासी हुए ।
इसके पश्चात् उस नगरमे से कोई वैतालिक ( चारण, भाट) विशालामे गया और वहाँ सिद्धश्री नामको दिवाकरकी साध्वी वहनसे मिला । वहाँ उसने दो पाद