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सच ही कहता हूँ कि यह देव मेरे नमस्कारको सहन नहीं कर सकेगा । इसीलिए मैं नमस्कार नहीं करता। जो देव मेरे नमस्कारको सह सकते हैं, उन्हें मैं अवश्य नमन करता हूँ ।" यह सुनकर कुतूहलवश राजाने कहा कि " चले, आप नमनक रे, क्या होता है वह मैं देखता हूँ ।" किसी भी उत्पातका उत्तरदायित्व राजाके ऊपर डालकर दिवाकरने शिवलिंग के सम्मुख बैठ उसकी स्तुति' उच्च स्वरसे इस प्रकार शुरू की
"हे प्रभो । अकेले तुमने जिस तरह तीनो जगत्को ययार्थरूपसे दिखलाया है, उस तरह दूसरे सभी धर्मप्रवर्तकोने नहीं दिखलाया। एक होनेपर भी 'चन्द्रमा जिस प्रकार जगत्को प्रकाशित करता है, उस प्रकार क्या सब उगे हुए तारे मिलकर प्रकाशित कर सकते हैं ? तेरे वचनसे भी किसी-किसीको बोध नही होता यही मुझे आश्चर्य लगता है। सूर्य की किरणे किसे प्रकाशका कारण नही होती ? अथवा इसमे आश्चर्य नही है, क्योंकि सूर्यको प्रकाशमान किरणे स्वभावसे ही कठोर हृदयवाले उल्लूको अन्धकाररूप भासित होती है ।" [ १३९-४२ ] ફસ પરવાä ‘ન્યાયાવતાર', ‘વીસ્તુતિ' નીર વત્તીય ોળી ઘુસી तीस बत्तीसियाँ तथा 'कल्याणमन्दिर' नामकी ४४ श्लोककी प्रसिद्ध स्तुति उन्होने रवी । उनमें से 'कल्याणमन्दिर' का ११वाँ श्लोक बोलते ही धरणेन्द्र नामका देव उपस्थित हुआ और उसके प्रभाव से शिवलिंगमेसे धुआं निकलने लगा, जिससे दोपहर के समय भी रात जैसा अन्धेरा छा गया। इससे लोग घबरा गये और भागते-भागते जहाँ-तहाँ टकराने लगे। इसके पश्चात् उस शिवलिंगमेसे अग्निको ज्वाला निकली और अन्तमे पार्श्वनाथकी प्रतिमा प्रकट हुई। इस घटनासे राजा प्रतिबोधित हुआ और वड़े भारी उत्सवके साथ विशाला ( उज्जयिनी ) मे दिवाकरका प्रवेश कराकर जैन शासनको प्रभावना की । इस
१. प्रकाशित त्वयैकेन यया सम्यग् जगत्त्रयम् । समस्तैरपि नो नाथ परतीर्थाधिपस्तथा ॥ १३९ ॥ विद्योतयति वा लोकं ययैकोऽपि निशाकर. । समुद्गत. समग्रोऽपि तथा किं तारकागणः ? ॥ १४० ॥ त्वद्वाक्यतोऽपि केषाचिदबोध इति मेऽद्भुतम् । भानोर्मरोचयः कस्य नाम नाऽऽलोक हेतवः ॥ १४१ ॥ नो वाऽद्भुतमुलुकस्य प्रकृत्या क्लिष्टचेतसः ।
स्वच्छा अपि तमस्त्वेन भासन्ते भास्वत करा. ॥ १४२ ॥