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दसणणात्ति। अस्य व्याख्या गुत्तत्थगतदुगाधा। दसणप्पभावगाण सत्याण सम्मदियादिसुतणाणे य जो विसारदो हिस्संकियसुत्तत्यो त्ति वृत्तं भवति, सो य उत्तिमपडिवन्नो, सो य जत्य खते ठिओ तत्यतरा वा वेरन्जमा तं सुत्तत्थं वोज्छिज्जतु ति अओ तहणट्ठया पकप्पति रज्जविरुद्धसंकमणं काउं।
निशायणि भा० ३, पृ० २०२. अथवा तिसु आइल्लेसु णिवत्तणाधिकरणं, तस्य ओरालिए एगिदियादिपंचविध, जोणीपाडातिणा जहा सिद्धसेणायरिएण असा पकता।
निशायणि भा० २, पृ० २८१. ___ निशीथचूणिके उपर्युक्त तीन उल्लेखोंके अतिरिक्त एक खास महत्वका उल्लेख, जो सिद्धसेनके उपयोगाभेदवाद-विषयक है, शाणिमें है । दशासूत्रको तीसरी दशा ( तीसरे अध्ययन ) में गुरुको श्राशातनाओंमें एक 'अणुट्ठियाइ कहे' नामकी अशातना आती है। इस अाशातनाका अर्थ यह है कि "गुरु जिस सभाके समक्ष व्याख्यान देते हो, उस सभाके उनसे पूर्व ही कोई शिष्य सभाके आगे ऐसा कहे कि 'गुरुने जो अमुक सूत्रकी अमुक व्याख्या की है, उसकी यह दूसरी भी व्याख्या होती है, उसका यह दूसरा भी अर्थ होता है ।' और ऐसा कहकर कोई सवाई स्थाना पडितम्मन्य शिष्य सभाके समक्ष अपनी डेढ़ चावलकी खिचड़ी पकाने लगे, तो यह एक प्रकारको गुरुको अवज्ञा है ।" चूणिमें प्राचार्य सिद्धसेनके ऊपर इस प्रकारको अवज्ञा करनेका आक्षेप किया है और उसे भावाशातना कहा है । चूणिकारने इस प्राशातनाका स्वरूप समझाते हुए उसके उदाहरणके रूप में प्रा० सिद्धसेनका नाम लिया है और कहा है कि "सिद्धसेनने एक ही सूत्रके भिन्न-भिन्न प्रकारके अर्थ किये।" सन्दर्भको देखते हुए ऐसा स्पष्ट-प्रतीत होता है कि एक ही सूत्रके भिन्न अर्थ करनेवाले इन प्राचार्य सिद्धसेनके अतिरिक्त दूसरा कोई प्रसिद्ध नहीं है । इसीलिए चूणिकारका कयन, सिद्धसेनने अपने उपयोगाभेदवादको लक्ष्य करके जो अन्तर किया है, उसीको बराबर लागू होता है। इस उल्लेखसे भी अपर निश्चित किये हुए सिद्धसेनके समयका मजबूत समर्थन होता है । चूर्णिकार प्रायः जिनदास ही होंगेअथवा दूसरस कोई भी हो, तो भी वह उनसे (जिनदाससे ) तो अर्वाचीन नहीं है । चूणिका अक्षरशः उल्लेख इस प्रकार है :
પ્રબુદ્દાનિવક્રાણ વેવ, મિસા જ તાવ વિરતિ, છિપા નાવ एक्को वि अच्छति, तमेव त्ति जो पायरियेण अत्थो कहितो दोहि ते(ती)हिं चाहिं वा; जहा सिद्धसेणायरितो तमेवाधिकार विकल्पयति, अयमपि प्रकारो तस्यैवैकस्य सूत्रस्यवंगुणजुत्तो, भावासादणा भवति ॥
शाचूणि पृ० १६.