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सिद्धसेन विवाकरको विक्रमको चौथी-पाँचवी शताब्दीमें रखने में हमे कोई वाधा नहीं दिखाई पड़ती।
सिद्धसेनका वह काल भारत के इतिहासमै गुप्तयुगके नाम से प्रसिद्ध है। यह युग सस्कृत-साहित्य और भापाके पुनरुत्थानका युग है। सिद्धसेनसे पहलेके जा। अन्य अधिकारात प्राकृतमें थे। दिवाकरको उपलब्ध कृतियोका बड़ा हिस्सा संस्कृतमे है। उनके बारेमे जो कथाएं प्रचलित हैं, उनमें जैन आगमोका सस्कृतम अनुवाद करने के उनके प्रयत्नोका उल्लेख आता है। यह हकीकत इस समयके साथ वरावरक ०ती है। समय देशमे सस्कृतका पुनरुत्थान हो और जन अन्य प्राकृतम रहे, यह बात इस ब्राह्मणजातीय जनभिक्षुको ठीक न लगी, यह स्वाभाविक है, परतु रूढिके आगे दिवाकरका कुछ अधिक पला नहीं होगा, ऐसा उनके कयानकोपरसे प्रतीत होता है।
२. जीवन-सामग्री अपने जीवन-वृत्तान्त के बारेमे दिवाकर सिद्धसेनने स्वय कुछ लिखा हो अथवा इस विषयमे उनके समसमयवर्ती या उनके पीछे तुरन्त ही होनेवाले किसी विद्वान्ने कुछ लिखा हो, तो ऐसा कोई साधन आजतक हमें उपलब्ध नही हुआ है। उनके जीवन के विषयमें जो कुछ योड़ी या बहुत, अधूरी या पूरी, सन्दिग्ध या निश्चित जानकारी हमें प्राप्त होती है या प्राप्त की जा सकती है, इसके लिए मुख्य तीन साधन है : १. प्रवन्ध, २. उल्लेख और ३ उनको अपनी रचनाएँ।
१. प्रबन्ध दिवाकरके जीवनका निर्देश करनेवाले पाँच प्रवन्ध इस समय हमारे समक्ष हैं। उनमें से दो लिखित हैं, जबकि तीन प्रकाशित हो चुके है । लिखित में एक गधबद्ध है और दूसरा पद्यबद्ध है। गधप्रबन्ध भद्रेश्वरको 'कथापलो' में आया है, जो ग्यारहवी शताब्दीक आसपासका मालूम होता है। पद्यप्रवन्धका लेखक एव उसका समय अज्ञात है, फिर भी यह तो निश्चित ही है कि वह वि० स० १२९१ से पहले कभी रचा गया होगा, क्योकि १२९१ की लिखी हुई ताडपत्रको प्रतिमें उसका एक खण्डित उद्धरण मिला है। इन दोनोमे गह
इस लोकको सन्मतिटीकाकार अभयदेवने (पृ० ७६१) सिद्धसेनका कहा है, तो 'स्थाद्वादमंजरी' के फर्ता मल्लिषणने ( पृ० २२८) समन्तभद्रका कहा है।
१. देखो श्रागे भानवाला 'प्रभावकचारगत प्रवन्धका सार'। २. ताडपत्रीय प्रतिक आन्तका उल्लेख इस प्रकार है :इति तत्कालकविवादिगजघापञ्चवक्त्रस्य ब्रह्मचारीतिख्यातविरुदस्य