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इसके अतिरिक्त, प्रो० जेकोवीके विचारके विरुद्ध एक विचार आता है और वह यह कि सिद्धसेनने अनुमानके अभ्रान्तत्वका तया प्रत्यक्ष के भी स्वार्थ-पराय रूप दो भेदोका विधान धर्मकीर्ति के सामने किया है, ऐसा थोडी देर के लिए मान ,के, तो भी उन्होने 'न प्रत्यक्षमपि भ्रान्त प्रमाणत्वविनिश्चयात्' ( न्यायावतार शैलीक ६ ) इत्यादि द्वारा प्रत्यक्षके अभ्रान्तत्वका विधान किसके सामने किया है, यह एक प्रश्न है । धर्मकीर्ति के सामने तो यह विधान है ही नहीं, क्योंकि धर्मकीर्ति तो प्रत्यक्षको अभ्रान्त मानता ही है । अत यह विधान दूसरे किसीके सामने है, यह तो निर्विवाद है। दूसरे किसीसे अभिप्रेत है धर्मकीर्तिसे भिन्न जो प्रत्यक्षमे अभ्रान्तत्व न मानते हो ऐसे बौद्ध विद्वान्, उनके उपलब्ध ग्रन्थोके द्वारा, आज हमारे समक्ष वसुबन्धु, दिङ्नाग और शकरस्वामी हैं । प्रत्यक्षको अभ्रान्त न माननेवाले विद्वान् अर्थात् विज्ञानवादी बोद्ध और प्रत्यक्षको अभ्रान्त विशेषण लगानेवाले अर्थात् सौत्रान्तिक बोद्ध । इससे सामान्यत ऐसा फलित होता है कि सिद्धसेनने सोचान्तिक एवं विज्ञानवादी दोनो प्रकारकी बौद्ध तर्कउपरम्परा के सामने प्रमाणके विषयमे अपने विवान रखे है । धर्मकीर्ति के पहले भी सोत्रान्तिक तर्क-परम्परा थी, यह बात हम पहले कह चुके है । अतएव यदि दूसरे प्रमाणोंसे सिद्धसेनका धर्मकीर्ति की अपेक्षा पूर्ववर्तित्व सिद्ध हो सकता हो, तो ऐसा ही कहना चाहिए कि सिद्धसेनने अनुमान और प्रत्यक्षमें जो विधान किये हैं, वे धर्मकीर्ति पूर्ववर्ती सोचान्तिक और विज्ञानवादी बौद्ध तार्किकोको लक्ष्य में रखकर किये है, धर्मकीर्तिको लक्ष्य करके नहीं ।
न्यायावतारका 'आप्तोपज्ञमतुल्लध्यम्' इत्यादि नवाँ श्लोक रत्नकरण्डकश्रावकाचार माता है । इसपरसे प० जुगलकिशोरजीका ऐसा अनुमान है कि यह श्लोक सिद्धसेन दिवाकरने समन्तभद्र के अन्यमेसे लिया है । उनकी मुख्य दलील इस श्लोक का चालू सन्दर्भमे औचित्य है या नही, इसपर आश्रित है । न्यायावतार में यह श्लोक उपयुक्त स्थानपर है, ऐसा हमे विषयका बारीकीसे अध्ययन करनेपर लगता है । समन्तभद्र रत्नकरण्डक श्रावकाचारके कर्ता है ही नेही, ऐसा डॉ० हीरालालजीने सिद्ध किया है। इससे इसका उत्तर देतेकी अब आवश्यकता ही नही रहती । ऐसा एक दूसरा भी श्लोक दोनोंके नामपर चढा हुआ मिलता है' ।
इस प्रकार इन दोनो विरोधी मतोका निराकरण हो जाता है । फलतः
१. नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे रसोपविद्धा इव लोहयातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिण. ॥