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'अनुमान भी प्रत्यक्षकी भाँति अभ्रान्त है ऐसा कहकर धर्मकीतिका खण्डन करते है। इसलिए इन दोनो महाशयोके मतानुसार सिद्धसेन दिवाकर धर्मकीतिके बाद यानी ई० ६३५-५० के पश्चात् आते है । ने इस दलीलकी परीक्षा करें। प्रमाणकी व्याख्या में अभ्रान्त अथवा उससे मिलता-जुलता शब्द भारतीय दर्शनाम धर्मकीर्तिसे पहले अज्ञात था, ऐसा मानना वस्तुत बहुत बड़ी भूल है, क्योकि गौतमके न्यायसूत्र तथा उसपरके वात्स्यायनके भाज्यमें 'अभ्रान्त' अर्थवाला 'अव्यभिचारी' शब्द और उस शब्दसे युक्त प्रत्यक्ष प्रमाणका लक्षण ( १.१४:) प्रसिद्ध है । प्रो० पी० एल० qध कहते हैं कि यदि दिनारसे पहले के बौद्धन्यायमे अभ्रान्तका विचार (Conception of अभ्रान्त), उपलब्ध हो, तो वह अपना विचार बदलने के लिए तैयार है' । सद्भाग्यसे अभ्रान्त शब्द और उसका विचार दिनाग-पूर्वक बौद्धन्यायमें भी मिलता है।
प्रो० टूची ( Tucci ) ने जर्नल ऑफ रोयल एसियाटिक सोसायटीके १९२९ के जुलाईके अकम दिनाग पहले के बौद्ध-न्यायपर एक विस्तृत निबन्ध प्रकट किया है। उसमे बौद्ध संस्कृत अन्थोके चीनी और तिब्बती अनुवादोके आधारपर दि नागके पहले वोडामें न्यायदर्शन कितना विस्तृत और विकसित था, यह बतानेका समय प्रयत्न किया है। उन्होने योगाचारभूमिशास्त्र और प्रकरणावाचा नामक अन्थोके वर्णन प्रत्यक्षकी व्याख्या इस प्रकार दी है : ___Pratyaksha according to A [ 1. e. Yogachāra-Bhumi shāstra and Prakaranāryavāchā / must be 'aparoksha, unmixed with imagination, nirvikalpa and devoid of error, abhrānta or avyabhichāri'
अर्थात् 'ए' ( योगाचारभूमिशास्त्र और प्रकरणायवाचा.) के मतानुसार प्रत्यक्ष अपरोक्ष, कल्पनापोढ (निर्विकल्प ,) और भूल विनाका ( अभ्रान्त या अव्यभिचारी होना चाहिए । अभ्रान्त अथवा अन्यभिचारी शब्दपरका टिप्पणीमें 'प्रो० टूची कहते है कि ये दोनो शब्द पर्यायवाची है और चीनी एव तिब्बती शब्दोका इस तरह दोनो रूपमें अनुवाद हो सकता है। वह स्वयं तो सामान्यत अभ्रान्त शब्द ही स्वीकार करते है। इससे प्रो० टूची ऐसे अनुमानपर आते है कि धर्मकातिने प्रत्यक्षकी व्याख्यामें जो अभ्रान्त पद जोडा है वह नया नहीं है, परन्तु
१. डॉ० पी० एल० वधको 'न्यायावतार'को प्रस्तावना ।
२. ज० रो० ए० सो०, जुलाई १९२९, पृ७ ४७० और पादटिपणी ४ तथा पृ० ४६४, ४७२ आदि ।