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उल्लेखके ढगसे ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी प्राचीन प्रतिष्ठि आचार्यका उल्लेख कर रहे हैं । इससे सिद्धसेन दिवाकरको विक्रमकी आठदे शताब्दी के पूर्वार्ध से पहले माननेमें कोई अन्तराय नही आता ।
समर्प
जैन आगमोके ऊपर चूर्णि नामको प्रसिद्ध प्राकृत टीकाएँ है । इनका सामान्य रूप से विक्रमको चौथी शताब्दीसे आठवी शताब्दीतकका है। चूर्णियों में एक निशीथसूत्रपर भी चूर्णि है। वह अनेक चूर्णियो के रचयिता जिनदासगण महत्तरकी कृति है । इन्होने नन्दी सूत्र को भी चूर्णि लिखी है। उस चूर्णिक प्राचीन विश्वसनीय प्रतिके अन्त मे उसका रचना समय शक स० ५९८ ( वि०स० ७३३, ई० ६७६ ) दिया गया है। जिनदासकी उस निगीयचूर्णिमे सन्मति ओर उसके कर्ता सिद्धसेन के विषयमे तीन उल्लेख ' आते है । इनमें से पहले
१. चूर्णिके अन्त में आया हुआ जिनदास नामका सूचक उल्लेख इस प्रकानू है. जो गाहासुत्यो, चेव विधी पागडो फुडपदत्यो ।
रइतो परिभासाए साहूण य अणुगट्ठा ॥ १ ॥ तिच पण प्रदुमवणे तिपणग-ति-ति अक्खरा व ते तेसि | पढसन्ततिएहि ति दुसरजु एहि णामं कथं जस्स ॥ २ ॥ गुरुदिण्णं च गणित्तं महतरतं च तस्स तुहि । तेण फएसा चुणी, વિસેસનામા मिसीहस्स ॥ ३ ॥ नमो सुयदेवयाए भगवती । जिणदासगणमहत्तरेण रइया | नमः तीर्थ कृद्भ्यः ॥ छ ॥ छ ॥ शुभं भवतु ॥ संवत् १५३१ वर्षे फाल्गुन सुदि २ लिखितं निशीय चूर्णि खण्ड २, लिखित पत्र ४६३-२ अब निशीयचूर्ण मुद्रित हो गयी है । उसमें 'जिणदासमणि' इत्यादि पा नहीं है । देखो निशी चूर्णि भा० ४, पृ० ४११ । इन गाथाओंके विशेषार्य ए નિનવાસન્ને વિષયમ ઘૂળિયત અન્ય સામગ્રીઃ ત્તિ! વેલો ‘નિશીય : ળ ઋષ્યયર્ન निशोय चूर्णि भा० ४ को प्रस्तावना पृ० ४६ से ।
२. देखो 'जैन साहित्य संशोधक' भाग १, पृ० ५० १ । नन्दी चूर्ण में मुद्रि पाठ इस प्रकार है सकराजतो पंचसु वर्षशतेषु नन्द्यध्ययन चूर्णी समाप्ता इि
० ५० १ ।
दसणगाही दंसणणाणप्पभावगाणि सत्याणि सिद्धिविणिच्छयसंमति असंथरमाणे ज कप्पिय पडिसेवति जयणाते तत्य सो सुद्धं
नीत्यर्थः ।
निशीयचूर्ण भा० १, पृ० १६२