________________ 46 ] बहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी ... 'गाथा 5-6 वहाँ मोक्षमार्ग सदा चालू ही है। यद्यपि इस कालमें इस क्षेत्रमेंसे सीधा मोक्षगमन नहीं है तथापि यहाँ आत्मकल्याणके हेतु या पुण्योपार्जन हेतु किये गये सर्व आचरणोंका फल आगामी भवमें होनेवाली सिद्धिप्राप्तिमें प्रबल कारणरूप बनता है। इस कालके जीव अल्पायुषी, प्रमादी, शिथिलाचारी और शरीरबलमें निर्बल होते हैं। अनेक प्रकारकी अनीतियाँ-प्रपंचादि पापकर्मोंके करनेवाले और ममत्वादिभावोंमें आसक्त और धर्माधर्मका विवेक नहीं रखनेवाले होते हैं। ७४इस पंचम आरेके अंतमें क्षार, अग्नि, विषादिकी मुख्य पांच प्रकारकी कुवृष्टियाँ सात सात दिन ७५तक पड़ती हैं, इससे बिजलीके भयंकर त्रास उत्पन्न होते हैं और भयंकर व्याधियों को उत्पन्न करनेवाली जहरीली जलकी वृष्टि होती है। तथा पृथ्वी पर स्थित वस्तुओंको नष्ट कर देनेवाली भयंकरसे भयंकर हवा बहती है। और इससे लोग महान त्रास पाकर करुणस्वरसे आक्रंद करते हैं। पृथ्वी पर रहनेके लिए या पहननेके लिए गृह-वस्त्रादि कुछ भी वस्तुएँ, जमीनसे पैदा होते हुए धान्य-फल आदि भी नष्टप्राय हो जाते हैं। साथ ही सर्व नदियोंका जल भी सूख जाता है, केवल शाश्वती होनेके कारण गंगा और सिंधु नदीका प्रवाह बैलगाड़ीके पहियोंके बीच प्रमाण विस्तारमें और गहराई में पैरका तलवा डूबे इतना ही होता है। उस समय मनुष्य अपना रक्षण करनेके लिए गंगा और सिंधु नदीके तट प्रदेश पर वर्तमान टीलों में जहां गुफा जैसे बिलों के स्थान होते हैं, वहाँ जाकर रहते हैं, और वहाँ दुःखी अवस्था में, वस्त्राभावमें, स्त्री-पुरुषकी मर्यादा रहित नग्नअवस्थामें विचरण करते हैं। तथा गंगा नदीके प्रवाहमें अवशिष्ट मत्स्यों का भक्षण करके जीवन-निर्वाह करते हैं। उस समय चंद्र भी अत्यत शीतल किरणोंको और सूर्य अति उष्ण किरणोंको फेंकता है। ये सर्व भाव पंचम आरेके अन्तमें क्रमानुसार प्रारंभ होते हैं। साथ ही चतुर्विध संघ, गण, इतर दर्शनों के सर्व धर्म, राजनीति, बादर, अग्नि, पकाना आदिः पाक (रसोई) व्यवहार, चारित्रधर्म सभी क्रमसे विच्छेद पाते हैं। ___ तथा चरम तीर्थपति श्री महावीरप्रभुका शासन जो कि अविच्छिन्नरूपसे चला आया 74. इस कालमें कालप्रभावसे और अपनी उस प्रकारकी साधना-शक्तिके अभावमें देवदर्शन दुर्लभ होता है / क्वचित् संभवित भी हो, परन्तु वैसी सात्त्विकता और श्रद्धा कहाँ है कि जिससे देवोंका आकर्षण हो सके ? इस हुंडा अवसर्पिणी कालके विशेष भावोंके लिए 'चन्द्रगुप्त' नृपतिको आये 16 स्वप्न और उन पर रचित स्वप्नप्रबन्ध 'व्यवहार-चूलिका में तथा 'उपदेश-प्रासाद में जानने योग्य वर्णन हैं। 75. कलिकाल के कारण वर्तमानमें भी रुधिर, मत्स्य, पत्थर तथा चित्र-विचित्र पंचवर्णी मत्स्यादिकी वर्षा बहुत स्थानों पर होती है, ऐसा अनेकशः अखबारोंमें प्रगट हुआ है। किन्हीं-किन्हीं अनार्यदेशों में आकाशमेंसे अग्नि आदि चित्र-विचित्र पदार्थोंकी दृष्टि होनेकी घटनाएँ भी क्या नहीं सुनते ? .