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स्यानावरण चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका अनुदय तथा सज्ज्वलन चतुष्क एव हास्यादिक नौ नोकषायोका यथासम्भव उदय रहता है उसके सकलचारित्र होता है । सज्ज्वलनचतुष्ककी भी तीव्र, मन्द और मन्दतर अवस्थाएँ होती हैं । षष्ठ गुणस्थान से लेकर दशम गुणस्थानतक इनका यथासम्भव उदय रहता है और उदयानुसार गुणस्थानोकी व्यवस्था बनती है ।
कोई भवभ्रमणशील भव्य मानव जब निर्ग्रन्थचार्य के पास जाकर दिगम्बर दीक्षा की प्रार्थना करता है तो उसको भावनाका परीक्षणकर आचार्य दिगम्बर साधुके मूलगुणोका वर्णन करते हैं - पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पञ्चेन्द्रिय, विजय, छह आवश्यक और आचेलक्य आदि शेष सात गुण, सब मिलकर उनके २८ मूलगुण होते हैं । इस ग्रन्थ में मूलाचार आदि ग्रन्थोके आधारपर इन मूलगुणोका विस्तृत वर्णन किया गया है। मुनिव्रतमें दृढ़ता प्राप्त करने के लिए अनित्यादि द्वादश अनुप्रेक्षाओका भी कथन किया गया है। स्वाध्यायकी परिपक्वताके लिये मार्गणा और गुणस्थानोकी भी किंचित् चर्चाको गई है। मोहनीय कर्मकी उपशमना और क्षपणाविधिका भी अल्प प्रतिपादन किया गया है । षडावश्यकोका वर्णन करते समय समाज, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्गको विस्तृत चर्चा की गयी है। इसके पाठभी विविध छन्दोमे रचे गये है, जिन्हे लयके साथ पढनेपर बडा आनन्द आता है।
इसी प्रकार आर्यिका दीक्षाकी प्रार्थना करनेपर आर्यिकाओके कर्तव्यकी विधि प्रदर्शितकी गयी है । अन्तमे श्रावकधर्मकी उत्पत्ति और प्रवृत्तिका वर्णन किया गया है। परिशिष्ट में अनेक उपयोगी विषयोका संकलन है ।
पाण्डुलिपि तैयार होनेपर अहारजीमे चातुर्मासके समय पूज्यवर आचार्य विद्यासागर जीके पास वह परीक्षणार्थ भेजी गई थी । प्रसन्नता की बात है कि उन्होने ब्र० राकेश जीके साथ इसका आद्योपान्त वाचन कर जो सशोधन या परिवर्तन सुझाये थे, यथास्थान कर दिये गये ।
इस सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिकी रचना खुरईको वाचनाके बाद हुयी । अत. वाचनमे रखे गये कषायपाहुड, पुस्तक १३ की चर्चाओसे यह ग्रन्थ प्रभावित है । कषाय पाहुडके कुछ स्थल शंका-समाधान के रूपमें उद्धृत भी किये गए हैं।