Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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उसी प्रकार तेरी परिणति अजीव को अपना मानकर उस ओर उन्मुख होने पर भी, उस अजीव के साथ तो एकाकार – एकमेक नहीं हो सकती; इसलिए उस अजीव से अपनी परिणति को अन्तर में उपयोगस्वरूप जीवद्रव्य की ओर उन्मुख करे तो वहाँ वह एकाकार होती है; इसलिए वही तेरा स्वरूप है - ऐसा तू जान। तेरी परिणति पर के साथ तो एकरूप नहीं हो सकती; तेरे उपयोगस्वरूप जीवद्रव्य में ही वह एकाकार होती है, इसलिए 'यह उपयोगस्वरूप जीवद्रव्य ही मैं हूँ' - इस प्रकार एक उपयोगस्वरूप जीवद्रव्य का ही स्वद्रव्यरूप अनुभव करके, उसी में अपनी परिणति को एकाकार कर और परद्रव्य को अपना माननेरूप मोह को अब तो तू छोड़ रे छोड़!
(8)
देह, वह मैं हूँ; देह की क्रिया मेरी है - ऐसा जो अज्ञानी मानता है, उससे आचार्यदेव कहते हैं कि अरे मूढ़ ! जीव तो उपयोगस्वरूप है और शरीरादि पुद्गल तो जड़स्वरूप हैं; उपयोगस्वरूप जीव
और जड़स्वरूप पुद्गल का एकत्व कभी नहीं हो सकता। तू कहता है कि चैतन्यमय जीव 'मैं' हूँ और शरीरादि अजीव भी 'मैं' हूँ - इस प्रकार चैतन्य और जड़ दोनों द्रव्यरूप से तू अपने को मानता है, किन्तु भाई रे! तू एक, जीव और अजीव - ऐसे दोनों द्रव्यों में किस प्रकार रह सकता है ? तू तो सदैव अपने उपयोगस्वरूप में विद्यमान है; पुद्गल तो जड़ है, उसमें तू विद्यमान नहीं है। इसलिए अकेले चैतन्यमय स्वद्रव्य का तू अपनेरूप अनुभव कर, उसी में 'मैं' पने की दृढ़ प्रतीत कर और उससे भिन्न अन्य समस्त पदार्थों में से मैं-पना छोड़ दे।
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