Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

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Page 181
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग -4] [ 165 चन्द्रराजा की बात सुनकर सुरतमुनिराज ने प्रसन्नता व्यक्त की और स्वयं भी विनयपूर्वक हाथ जोड़कर श्री गुप्तआचार्य को परोक्ष नमस्कार किया। एक-दूसरे के प्रति मुनियों का ऐसा वात्सल्य देखकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुए । सुरतमुनिराज ने कहा हे वत्स ! वात्सल्य द्वारा धर्म शोभायमान होता है । धन्य है उन रत्नत्रय के धारक आचार्यदेव को - कि जिन्होंने इतनी दूर से साधर्मी के रूप में हमें याद किया । शास्त्र में कहा है कि | - ― ये कुर्वन्ति सुवात्सल्यं भव्या धर्मानुरागतः । साधर्मिकेषु तेषां हि सफलं जन्म भूतले ॥ अहा! धर्म के द्वारा जो भव्य जीव साधर्मीजनों के प्रति उत्तम वात्सल्य करते हैं, उनका जन्म जगत में सफल है। प्रसन्नचित्त से भावपूर्वक बारम्बार उन मुनिराज को नमस्कार करके राजा विदा हुए तथा भव्यसेन मुनिराज के पास आये। उन्हें बहुत शास्त्रज्ञान था और लोगों में वे बहुत प्रसिद्ध थे । राजा बहुत समय तक उनके साथ रहे परन्तु उन मुनिराज ने न तो आचार्यसंघ का कोई कुशल- समाचार पूछा और न कोई उत्तम धर्माचर्चा की। मुनि के योग्य व्यवहार-आचार भी उनके ठीक नहीं थे। शास्त्रज्ञान होने पर भी शास्त्रों के अनुसार उनका आचरण नहीं था। मुनि को न करनेयोग्य प्रवृत्ति वे करते थे । यह सब प्रत्यक्ष देखने से राजा को मालूम हो गया कि भव्यसेन मुनि कितने भी प्रसिद्ध क्यों न हों, तथापि वे सच्चे मुनि नहीं । - तो फिर गुप्ताचार्य उनको क्यों याद करते । वास्तव में, उन विचक्षण आचार्य भगवान ने योग्य ही किया । Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

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