Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
१. सम्यग्दृष्टि का निःशङ्कित अङ्ग ।
जो कर्मबन्धनमोहकर्ता, पाद चारों छेदता। चिन्मूर्ति वो शङ्कारहित, सम्यक्त्वदृष्टी जानना॥२२९॥
देखो, यह समकिती जीव का चिह्न ! यह समकिती के आचार! सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा जानता है कि मैं तो एक टङ्कोत्कीर्ण ज्ञायकभाव हूँ, बन्धन मेरे स्वभाव में है ही नहीं; इस प्रकार अबन्ध ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि से धर्मी को बन्धन की शङ्का नहीं होती। आत्मा के स्वभाव में बन्धन की शङ्का या भय होवे, वह तो मिथ्यात्वभाव है; धर्मी को उसका अभाव है। कर्म और उस कर्म की ओर का भाव, वह मेरे स्वभाव में है ही नहीं; मैं तो एक ज्ञायकस्वभाव हूँ-ऐसी दृष्टि में धर्मी को निःशङ्कता है; इसलिए शङ्काकृत बन्धन उसे नहीं होता, परन्तु निःशङ्कता के कारण निर्जरा होती है।
देखो भाई! लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करने से कोई यह चीज मिले ऐसा नहीं है, यह तो अन्तर की चीज है। पैसा तो पूर्व के पुण्य से मिल जाये, परन्तु यह चीज तो पुण्य से मिले वैसी नहीं है। पैसा और पुण्य दोनों से पार अन्तर की रुचि और प्रतीति का यह विषय है। मैं एक जाननेवाला-देखनेवाला स्वभावमय हूँ। दूसरे बन्धभाव मेरे स्वरूप में हैं ही नहीं-ऐसी दृष्टि से अबन्ध परिणाम में वर्तते सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा को बन्धन होने की शङ्कारूप मिथ्यात्व आदि का अभाव है। धर्मी जानता है कि मैं ज्ञायकभाव हूँ; 'मेरा ज्ञायकभाव कर्मों से ढंक गया'-ऐसी शङ्का उसे नहीं होती। कर्मबन्ध के कारणरूप मिथ्यात्वादि भावों का मेरे स्वभाव
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