Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
५. सम्यग्दृष्टि का उपगूहन अङ्ग
मैं ज्ञायकस्वभाव हूँ - ऐसे अन्तरस्वभाव के अनुभवपूर्वक जहाँ नि:शङ्क प्रतीति हुई, वह समकिती निर्भयरूप से अपने स्वरूप को साधता है, उसे वहाँ सप्त प्रकार के भय नहीं होते और निःशङ्कता इत्यादि आठ प्रकार के गुण होते हैं। उन गुणों का यह वर्णन चल रहा है। समकिती के निःशङ्कता, निःकांक्षिता, निर्विचिकित्सा और अमूढदृष्टि-इन चार अङ्गों का वर्णन हो गया है। अब इस गाथा में पाँचवाँ उपगूहन अङ्ग बतलाते हैं।
जो सिद्धभक्तीसहित है, गोपन करें सब धर्म का। चिन्मूर्ति वो उपगुहनकर सम्यक्तदृष्टी जानना॥२३३॥
समकिती धर्मात्मा, सिद्धभक्तिसहित है। सिद्धभक्ति में अर्थात् सिद्ध समान अपने शुद्ध आत्मा में उपयोग को गोपन किया होने से (-जोड़ा होने से) धर्मी को 'उपगूहन' है और प्रतिक्षण उसकी आत्मशक्तियाँ बढ़ती होने से उसे उपबृंहण' भी है। मैं चिदानन्दस्वभाव हूँ-ऐसे अन्तर में उपयोग को जोड़ा, वहाँ गुणों का उपबृंहण और रागादि विकार का उपगूहन हो गया। स्वभाव की शुद्धता प्रगट हुई, वहाँ दोषों का उपगूहन हो गया। आत्मा के ज्ञानानन्दस्वरूप के अवलम्बन से प्रतिक्षण धर्मात्मा को गुण की शुद्धता बढ़ती जाती है और दोष टलते जाते हैं, इसका नाम उपबृंहण अथवा उपगूहन है। धर्मी की दृष्टि में अल्प दोष की मुख्यता होकर स्वभाव ढंक जाए -ऐसा कभी नहीं होता। अल्प दोष हों, उन्हें जानता है परन्तु उससे ऐसी शङ्का नहीं करता कि मेरा सम्पूर्ण स्वभाव, मलिन हो
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