Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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७. सम्यग्दृष्टि का वात्सल्य अङ्ग ..
जो मोक्षपथ में 'साधु' त्रय का वत्सलत्व करे अहा। चिन्मूर्ति वो वात्सल्ययुत, सम्यक्तदृष्टी जानना ॥२३५॥
सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, ये तीनों मोक्षमार्ग के साधक होने से साधु' हैं; इन तीन साधु के प्रति अर्थात् रत्नत्रय के प्रति धर्मात्मा को परम प्रीतिरूप वात्सल्य होता है। व्यवहार में तो आचार्य-उपाध्याय और मुनि, इन तीन साधुओं के प्रति वात्सल्य होता है और निश्चय से अपने रत्नत्रयरूप तीन साधुओं के प्रति परम वात्सल्य होता है। यहाँ निर्जरा का अधिकार होने से निश्चयअङ्गों की मुख्यता है; इसलिए आचार्यदेव ने नि:शङ्कता आदि आठों अङ्गों का निश्चयस्वरूप बतलाया है।
सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा, टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमयता के कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों रत्नों को अपने से अभेदबुद्धि से सम्यक्प से देखता होने से मार्गवत्सल है, अर्थात् मोक्षमार्ग के प्रति अति प्रीतिवाला है; इसलिए उसे मार्ग की अनुपलब्धि से होनेवाला बन्ध नहीं, परन्तु रत्नत्रयमार्ग में अभिन्न बुद्धि के कारण निर्जरा ही है।
देखो, आठों अङ्गों के वर्णन में 'टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायक -स्वभावमयता के कारण'... ऐसा कहकर आचार्यदेव ने विशेष विशिष्टता की है। सम्यग्दृष्टि सदा ही 'टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायक -स्वभावमय' है; इसलिए उसे शङ्का-काँक्षा आदि दोष नहीं होते और इसीलिए उसे निःशङ्कता आदि आठ गुण होते हैं और उनसे
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