Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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प्रकार कहीं भी उन्हें उलझन नहीं होती। अस्थिरताजन्य जो उलझन होती है, वह कहीं श्रद्धा को दूषित नहीं करती, अर्थात् श्रद्धा के विषय में तो उन्हें उलझन का अभाव ही है। ऐसी श्रद्धा के जोर से धर्मी को निर्जरा ही होती जाती है, बन्धन नहीं होता। सर्व भावों के प्रति कहीं भी उन्हें विपरीत दृष्टि नहीं होती, इसलिए धर्मी की दृष्टि में उलझन का अभाव है। ___जैसे किसी साहूकार के पास लाखों-करोड़ों रुपये की पूँजी हो और कोई दूसरे लोग उसकी पैढ़ी पर लिख जाये कि 'इस व्यक्ति ने दिवाला निकाला', ऐसे अनेक लोग एकत्रित होकर कदाचित् प्रचार करें, तथापि वह साहूकार उलझन में नहीं आता; वह नि:शङ्क जानता है कि मेरी सब पूँजी मेरे पास सुरक्षित पड़ी है, लोग कुछ भी बोलें परन्तु मेरा हृदय और मेरी पूँजी तो मैं जानता है। इस प्रकार साहूकार को उलझन नहीं होती। ___ इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा निःशङ्क जानता है कि मेरे चैतन्य की बुद्धि मेरे पास मेरे अन्तर में है; बाह्य दृष्टि लोग भले अनेक प्रकार से विपरीत कहें या निन्दा करें परन्तु धर्मी को अपने अन्तरस्वभाव की प्रतीति में उलझन नहीं होती; लोग भले चाहे जैसा बोलें परन्तु मेरी स्वभाव की प्रतीति का वेदन मैं जानता हूँ, मेरे स्वभाव की श्रद्धा निःशङ्करूप से सुरक्षित पड़ी है। मेरा वेदन-मेरे चैतन्य की पूँजी-तो मैं जानता हूँ; इस प्रकार धर्मी जीव को अपने स्वरूप में कभी उलझन नहीं होती; इसलिए उसे मूढ़ताकृत बन्धन नहीं होता परन्तु निर्मोहता के कारण निर्जरा ही होती है - ऐसा सम्यग्दृष्टि का अमूढदृष्टि अङ्ग है।
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