Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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आत्मा हूँ, यह सब जड़ की अवस्था मुझसे भिन्न है-ऐसे सम्यग्ज्ञान में वर्तते धर्मात्मा को संयोगीदृष्टि छूट गयी है, इसलिए पदार्थ के स्वरूप के प्रति उसे द्वेष नहीं होता; अपनी अल्प सहनशक्ति से किसी समय अल्प अरुचिता का भाव हो जाता है, वह तो अस्थिरता मात्र का दोष है, परन्तु श्रद्धा का दोष नहीं। देह से भिन्न आत्मा के आनन्द का जिसने निर्णय किया होगा, उसे देह की दुर्गन्धित अवस्था के समय आत्मा की पवित्रता में शङ्का नहीं होती; देह मैं नहीं, मैं तो आनन्द हूँ-ऐसे आत्मा के ज्ञानानन्दस्वरूप की सुगन्ध (संस्कार) जिसने अपने में बैठाये होंगे, उसे देह की दुर्गन्ध आदि अवस्था के समय भी ज्ञान की एकताबुद्धि नहीं छूटेगी, अर्थात् ज्ञान की एकता से छूटकर उसे दुर्गञ्छा (ग्लानि) नहीं होती।
मेरे आत्मा की पवित्रता का पार नहीं, मेरा आत्मा तो पवित्रस्वरूप है और ये देहादि तो स्वभाव से ही अपवित्र हैं-ऐसा जाननेवाले धर्मात्मा को कहीं परद्रव्य में ग्लानि नहीं होती; इसलिए कैसे भी मलिन इत्यादि पदार्थों को देखकर भी, पवित्र ज्ञानस्वभाव की श्रद्धा से च्युत नहीं होते। जैसे दर्पण में कैसे भी मलिन पदार्थों का प्रतिबिम्ब पड़े, तो भी वहाँ दर्पण को उनके प्रति दुर्गञ्छा / ग्लानि नहीं होती; उसी प्रकार ज्ञानस्वरूप स्वच्छ दर्पण में कैसे भी पदार्थ ज्ञात हों, तथापि दुर्गञ्छा-द्वेष करने का उसका स्वभाव नहीं है। ऐसे ज्ञानस्वभाव को अनुभव करते हुए ज्ञानी को दुर्गञ्छा का अभाव होने से बन्धन नहीं होता किन्तु निर्जरा ही होती है। ऐसा सम्यग्दृष्टि का निर्विचिकित्सा अङ्ग है।.
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