Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-4
२. सम्यग्दृष्टि का नि:कांक्षित अङ्ग । जो कर्मफल अरु सर्व धर्मों की न कांक्षा धारता। चिन्मूर्ति वो कांक्षारहित सम्यक्त्वदृष्टी जानना ॥२३०॥
मैं एक ज्ञायकभाव ही हूँ, ज्ञायकस्वभाव ही मेरा धर्म है; इसके अतिरिक्त बाहर के कोई धर्म मेरे नहीं हैं। कर्म और कर्मों के फल से मैं अत्यन्त भिन्न हूँ-इसके अन्तरभान में धर्मी को किसी भी कर्म या कर्मफल के प्रति आकांक्षा नहीं है, उन सबको वह पुद्गलस्वभाव जानता है; और ज्ञायकस्वभाव से भिन्न सर्व धर्मों के प्रति कांक्षा से रहित है। इस प्रकार धर्मी जीव नि:कांक्ष है; इसलिए उसे कांक्षाकृत बन्धन नहीं होता परन्तु पूर्वकर्म निर्जरित हो जाते हैं।
मैं ज्ञानस्वभाव हूँ—ऐसी ज्ञाननिधि जिसने अपने पास देखी है, उसे पर की कांक्षा कैसे होगी? आनन्द से भरपूर चैतन्यरिद्धि के समक्ष जगत की किसी रिद्धि को ज्ञानी नहीं चाहता। क्योंकि
सिद्धि-रिद्धि-वृद्धि दीसे घट में प्रगट सदा, अन्तर की लक्ष्मी सों अजापी लक्षपती है; दास भगवन्त के उदास रहे जगतसों, सुखीया सदैव ऐसे जीव समकिती है। समकिती जानता है कि अहो, मेरे आत्मा की सिद्धि, रिद्धि और वृद्धि सदा मेरे घट में-अन्तर में ही है; ऐसी अन्तर की चैतन्यलक्ष्मी के लक्ष्य द्वारा वह अयाचक लक्षपति है, बाहर की सिद्धि को चाहता नहीं; और वह जिनेन्द्र भगवान का दास है तथा जगत से उदास है-ऐसे समकिती जीव सदा सुखिया हैं। आहाहा!
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