Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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में अभाव ही है-ऐसी ज्ञायकस्वभाव की निःशङ्कता ही धर्म का साधन है। ज्ञायकस्वभाव की सन्मुखता हुई, वहाँ दूसरे साधन में व्यवहार साधन का उपचार आया परन्तु जहाँ ज्ञायकस्वभाव के सन्मुख दृष्टि नहीं, वहाँ तो दूसरे साधन को व्यवहार साधन भी नहीं कहा जाता।
जीव को ऐसा लगना चाहिए कि अरे, मेरा क्या होगा? मेरा हित कैसे होगा? अनादि संसार में कहीं बाहर में शरण नहीं मिली, परभाव भी मुझे शरणरूप नहीं हुए; इसलिए अन्तर में मेरा शरण खोचूँ! क्या इसी स्थिति में रहना है ? भाई! अन्तर में तेरा शरण है, उसे पहचान ! तेरा आत्मा ज्ञायकस्वभावमय है, वही तुझे शरणरूप है। ऐसे आत्मा को लक्ष्य में लेने से तुझे अल्प काल में मोक्ष होने के सम्बन्ध में नि:शङ्कता हो जायेगी।
समकिती धर्मात्मा ने अपने ध्रुवज्ञायकस्वभाव को जानकर उसकी शरण ली है, उस स्वभाव की शरण में उसे निःशङ्कता हो गयी है कि हमारे आत्मा को हमने अनुभव में लिया है और उसके ही आधार से अब अल्प काल में पूर्णानन्दरूप सिद्धदशा होगी।
चौथे गुणस्थान में समकिती को भी ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि में ऐसी नि:शङ्कता है; बन्धन करनेवाले मिथ्यात्वादि भाव मेरे स्वभाव में हैं ही नहीं-ऐसे भाव में धर्मी को बन्धन होने की शङ्का नहीं होती; इसलिए उसे शङ्काकृत बन्धन नहीं होता परन्तु निःशङ्कता के बल से पूर्व कर्म भी उसे निर्जरित हो जाते हैं। ऐसा सम्यग्दृष्टि का निःशङ्कता अङ्ग जानना।.
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