Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग -4]
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एक अद्भुत वैराग्य चर्चा
(आत्मार्थ को पुष्ट करके वैराग्य रस की धुन जगाये, ऐसी वार्ता ।)
जिसने आत्मा के सहजसुख को अनुभव में लिया है, ऐसे वैराग्यवन्त धर्मात्मा जानते हैं कि सुख तो आत्मा के ध्रुवचिदानन्दस्वभाव में है; बाहर के संयोग तो अध्रुव और अनित्य हैं, उनमें सुख कैसा ? इस प्रकार धर्मी ने अपने स्वभाव का सुख देखा है; इसलिए बाहर में सर्वत्र से दृष्टि हट गयी है।
छोटा-सा पुण्यवन्त राजकुमार हो, बाग-बगीचा के बीच में महल में बैठा हो, बाहर में सभी तरह से सुखी हो... परन्तु अन्दर हृदय में विरक्त होने पर माता से कहता है कि हे माँ! मुझे इसमें कहीं चैन नहीं पड़ता... इसमें कहीं मेरा चित्त नहीं लगता । आत्मा के आनन्द में जहाँ हमारा चित्त लगा है, वहाँ से वह नहीं हटता और इसमें कहीं हमारा चित्त क्षणमात्र नहीं लगता ।
माँ कहती है—बेटा ! इसमें तुझे क्या कमी है ? तुझे क्या दुःख है ? पुत्र कहता है— माँ ! इन संयोगों में कहीं मुझे चैन नहीं पड़ता; मेरा चित्त तो मेरे स्वभाव के आनन्द में लगा है ।
अरे, हम तो आत्मा ! या हम तो दुःख ?
– दुःखी, वह हम कैसे हों ? हमारा आत्मा तो सुख का सागर है, उसमें यह दुःख क्या ? यह संयोग क्या ?
माता ! आज्ञा दो, हम हमारे चैतन्य के आनन्द को साधेंगे। इन संयोगों से दूर-दूर अन्दर हमारी स्वभावगुफा में जाकर सिद्ध के
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