Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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सम्यग्दर्शन : भाग-4]
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स्वभाव को चेते / अनुभव करे, उसका नाम ज्ञानचेतना है। ऐसी ज्ञानचेतना, वह सम्यग्दृष्टि का धर्म है। अज्ञानी अपने को रागरूप ही चेतता है - अनुभव करता है, वह अज्ञानचेतना है, वह कर्मचेतना है। जो रागादि अशुद्धता को अनुभव करता है, उसे राग-द्वेषमोहरहित जो शुद्धज्ञान, उसके स्वाद का पता नहीं है; धर्मात्मा की ज्ञानचेतना राग से भिन्न अन्तर्मुख है; पर्याय ने शुद्धस्वभाव को स्पर्श कर उसका अनुभव किया है; वह चेतना, राग को स्पर्श नहीं करती, राग से तो पृथक् ही रहती है। वह ज्ञानचेतना आत्मिकरस से भरपूर है, अतीन्द्रिय आनन्द से भरपूर है। धर्मी को आत्मा के आनन्द से भरपूर चैतन्य कल्लोल उल्लसित होती है।
अन्तर में ध्येय करके अपने परिपूर्ण आत्मा को जाना, वहाँ सम्पूर्ण जगत को भी जान ले, ऐसे ज्ञान की सामर्थ्य प्रतीति में आयी। जीव अखण्ड ज्ञानस्वभावी है, तो ज्ञाता की सामर्थ्य अधूरी कैसे होगी? सम्पूर्ण सर्वज्ञ स्वभाव धर्मी ने अपने में देखा, वहाँ वह जगत का ज्ञाता हुआ।
जो ज्ञानस्वरूप आत्मा को चेते, वह ज्ञानचेतना; राग द्वारा ऐसी ज्ञानचेतना अनुभव में नहीं आती; राग का तो ऐसी ज्ञानचेतना में अभाव है, ज्ञानचेतना तो चैतन्य प्रकाश से भरपूर है, आनन्द से भरपूर है। ज्ञानचेतना द्वारा जो शुद्ध आत्मा को अनुभव करता है, उसे शुद्धता प्रगट होती है और अज्ञानचेतनारूप अशुद्धता का जो अनुभव करता है, उसे अशुद्धता ही होती है। इस प्रकार ज्ञानचेतना, वह मोक्षमार्ग है और अज्ञानचेतना, वह संसारमार्ग है।
चौथे गुणस्थान से ही ज्ञानचेतनारूप मोक्षमार्ग प्रगट हुआ,
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