Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[ सम्यग्दर्शन : भाग-4
32]
की निर्मलक्रिया होती है, उसमें मैं हूँ, परन्तु राग की क्रिया में मैं
नहीं ।
द्रव्य-गुण- पर्याय को जानने के पश्चात् अन्तर के अभेद चेतनमात्र स्वभाव का अनुभव करने में अलग ही प्रकार का पुरुषार्थ है, उस अन्तरक्रिया में स्वभाव का अपूर्व पुरुषार्थ है । अनादि के भवसागर का अन्त ऐसे अपूर्व पुरुषार्थ से ही होता है। यदि स्वभाव के अपूर्व पुरुषार्थ बिना ही भवसागर से तिरा जाता हो, तब तो सभी जीव, मोक्ष में चले जाते ! – परन्तु स्वभाव के अपूर्व प्रयत्न बिना यह समझ में आवे ऐसा कभी नहीं होता और यह समझे बिना कभी किसी जीव के परिभ्रमण का अन्त नहीं आता ; इसलिए अन्तर की रुचि और धीरजपूर्वक स्वभाव समझने का उद्यम करना चाहिए।
भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव, सम्यग्दर्शन का अपूर्व उपाय बताते हुए भव्य जीव को कहते हैं कि हे भव्य ! तू अरिहन्त भगवान के शुद्ध द्रव्य-गुण- पर्याय को पहचान... वह पहचानने पर तुझे तेरे आत्मा का पता पड़ेगा कि मैं भी अरिहन्त की ही जाति का हूँ, अरिहन्त भगवान की पंक्ति में बैठूं - ऐसा मेरा स्वभाव है। इस प्रकार आत्मस्वभाव को पहचानकर उसमें एकाग्र होने से अपूर्व सम्यग्दर्शन होगा |
पहले में पहले क्या करना, उसकी यह बात है । अनादि के अज्ञानी जीव को छोटे में छोटा जैनधर्मी बनने, अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि होने की यह बात है। मुनि या श्रावक होने से पहले आत्मा की कैसी श्रद्धा होना चाहिए,
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