Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 4
आत्मा का स्वाद तो अचलित विज्ञानघनरूप है। पुद्गल का स्वाद (खट्टा-मीठा) वह तो जड़ है; राग के स्वाद में आकुलता है, वह कषायैला-कषायवाला स्वाद है । इन दोनों स्वाद से भिन्न परम शान्तरसरूप विज्ञानघन स्वाद वह तेरा स्वाद है । स्वानुभव में ज्ञानी को ऐसे चैतन्यस्वाद का वेदन हुआ है।
जिसे अपने चैतन्य के शान्तरस का पता नहीं, उसका स्वाद चखा नहीं, वह जीव, अज्ञान से शुभ - अशुभभावों के स्वाद को अपना / आत्मा का स्वाद समझता है और इसलिए वह उन विकारी भावों का कर्ता होता है । अरे! तेरे चैतन्यपूर का एकरूप प्रवाह, उसे इन्द्रियरूपी पुल के नाले द्वारा रोककर तू खण्ड-खण्ड कर डालता है और राग के साथ मिलावट करके भिन्न चैतन्यस्वभाव को तू भूल रहा है। बापू ! तेरे स्वाद में तो आनन्द होगा ? या आकुलता होगी ? चैतन्य खेत में तो आनन्द का अमृत पकेगा या विकार का ज़हर पकेगा ? इन ज़हरीले परिणामों में अमृतस्वरूप आत्मा कैसे व्यापे ? आनन्दस्वरूप आत्मा का व्याप्य (रहने का स्थान) वह ज़हररूप कैसे होगा ? भाई ! तेरा व्याप्य अर्थात् तेरे रहने का धाम, वह तो तेरे चैतन्यपरिणाम में है। आनन्द से भरपूर विज्ञानमय निर्मल भाव में तू रहनेवाला (व्यापक) है, वही तेरा रहने का धाम है। ऐसे धाम में आत्मा को रखना, उसमें उसकी रक्षा है; और विकार द्वारा उसकी हिंसा होती है। बापू ! विकार के कर्तृत्व द्वारा तू आत्मा को मत घात... तेरे चैतन्यस्वाद को खण्डित न कर। विकार से भिन्न चैतन्यस्वाद को अखण्ड रखकर उसे अनुभव में ले।
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.