Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 4
पड़ जाते हैं । पहले से ही भिन्न थे, इसलिए भिन्न पड़े; एकमेक हो गये होते तो भिन्न नहीं पड़ते। इसी प्रकार ज्ञान और राग भी एकमेक नहीं हो गये हैं, भिन्नरूप ही रहे हैं; इसलिए भिन्न हो जाते हैं । प्रज्ञाछैनी द्वारा राग तो आत्मा से बाहर निकल जाता है और ज्ञान अन्तर में एकमेक रह जाता है - ऐसा भेदज्ञान करे तो आत्मा की सच्ची प्रभुता पहिचानने में आवे ।
अहो, परमेश्वर-तीर्थंकर परमात्मा की दिव्यवाणी में भी जिसकी महिमा पूरी नहीं पड़ती, ऐसी चैतन्य हीरा तू है। तेरे एक-एक पासा में (प्रत्येक गुण में) अनन्त ताकत छलके - ऐसे अनन्त पासा से झलकती तेरी प्रभुता ! अनन्त शक्ति के वैभव से भरपूर आत्मा का धाम-ऐसा भगवान तू स्वयं ! परन्तु तेरी नजर की आड़ से तू तुझे नहीं देखता, हरि तू स्वयं है, वह हरि स्वयं से जरा भी दूर नहीं है, तथापि उसके भान बिना अनन्त काल व्यतीत हुआ। भाई ! अब तो जाग ! जागकर अपने में देख ! अन्दर में नजर करते ही 'मेरो प्रभु नहीं दूर देशान्तर, मोहि में है, मोहे सूझते नीके' - ऐसी तुझमें ही तुझे तेरी प्रभुता दिखेगी । ज्ञानस्वरूप में दृष्टि करने से आत्मा हाथ में आता है; उसका अनुभव होता है ।
आत्मा जाननहार है, तथापि स्वयं, स्वयं को अनुभव क्यों नहीं करता ? ज्ञान को स्वसन्मुख नहीं करता, इसलिए आत्मा अनुभव में नहीं आता। अनन्त शक्ति का परमेश्वर है तो स्वयं ही, परन्तु स्वयं अपने को भूल गया है । ३८ वीं गाथा में कहा था कि जैसे कोई मुट्ठी में रखे हुए स्वर्ण को भूल गया हो और बाहर ढूँढता हो, वह फिर याद करके स्वर्ण को अपनी मुट्ठी में ही देखे कि अरे, यह
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