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[ समराइज्यकहा
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बुर के प्रहार से भयभीत हुआ, इस समय यहीं दारुण अवस्था का अनुभव कर रहा है। दूसरे जन्म में आप पुष्करार्ध क्षेत्र के भरतखण्ड की कुसुमपुर नगरी में निवास करनेवाले कुसुमसार नामवाले सेठ के लड़के थे। विभावसु का जीव आपकी श्रीकान्ता नाम की अत्यन्त प्रिय पत्नी थी। इस कारण आपका वियोग से उत्पन्न दुःख शान्त नहीं हो रहा है।' मैंने कुत्ते को लाने के लिए आदमी भेजे। केवली ने कहा कि मेरे मित्र की यह वर्तमान दशा पिछले जन्म में जाति का अभिमान करने के कारण हुई। मदनमहोत्सव के साथ एक बार जब नाना वेश वाली नगर की संगीत मण्डलियाँ निकल रही थीं तब अनेक लोगों के द्वारा प्रशंसनीय वसन्त-क्रीड़ा का अनुभव करती हुई समीप में ही चलनेवाली वस्त्रशोधकों की मण्डली उसे दिखाई दी। इसे देखकर अज्ञान के दोष से जाति कुलादि से गर्वित होकर कैसे नीच संगीत मण्डली हमारी मण्डली के साथ चल रही है ? इस प्रकार धोबियों का तिरस्कार किया। पुष्यदत्त को प्रधान मानकर उसे सिपाही ले गये । मदनमहोत्सव के बाद लोगों ने पुष्यदत्त को छुड़ाया । अत्यधिक मान रूप परिणाम के वशवर्ती हो कुसुमसार ने दूसरे जन्म की आयु बाँध ली। अतः यह कुत्ते के रूप में उत्पन्न हुआ है। आयु पूरी कर इस कुत्ते के भव से निकलकर इसी पुष्यदत्त के घर में प्रसूत घोटघटिका नाम की गधी के गर्भ में गधे के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर पुष्यदत्त के समीपवर्ती मातृदत्त चाण्डाल की अनधिका नामक भार्या की कुक्षि से नपुंसक के रूप में उत्पन्न होगा । अन्त में सिंह द्वारा मरण प्राप्त कर उसी चाण्डाल स्त्री के गर्भ से लड़की के रूप में उत्पन्न होगा। गर्भ से निकलते ही बाल्यावस्था के प्रथम चरण में सर्प के द्वारा काटा
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जाकर वह पुष्यदत्त की दत्तिका नामक गुहदासी की कूख से नपुंसक रूप से उत्पन्न होगा। अन्त में नगरदाह होने पर शरीर भस्म होने से वह उसी गृहदासी के गर्भ में स्त्री के रूप में जन्म लेगा। उत्पन्न होकर वह लड़की पीठ से सरकने वाली हो जायेगी । तब इसी नगर के राजमार्ग पर जाते हुए गर्वीले मतवाले हाथी द्वारा मारी जाकर इसी पुष्यदत्त की कालांजनिका नामक स्त्री के गर्भ से कन्या के रूप में उत्पन्न होगी। पुष्यदत्त उसे पुष्यरक्षित नामक निर्धन पुरुष को देगा। अनन्तर गर्भवती हो वह गर्भं की महान् वेदना से अभिभूत हो मृत्यु प्राप्त कर अपनी माता के ही पुत्र के रूप में उत्पन्न होगी । उत्पन्न होकर गान्धार नदी के किनारे खेलती हुई पुष्यदत्त के चिलात नामक शत्रु द्वारा 'शत्रु का पुत्र है' ऐसा मानकर गर्दन पकड़कर बहुत बड़ी शिला बाँधकर तालाब में फेंक दी जायेगी। इसके निदान की यह समाप्ति है। यह भव्य और मोक्षगामी है। इसे सुनकर मुझे संसार से वैराग्य हो गया ।
अनन्तर गुणसेन ने शाश्वत स्थान (मोक्ष) के विषय में आचार्यश्री से प्रश्न किया। आचार्यश्री ने उपदेश दिया। गुणसेन माह भर विजयसेन आचार्य के पास जाता रहा विजयसेनाचार्य के दूसरी जगह चले जाने पर राजा ने एक शव को चिता पर ले जाते हुए देखा। इसे देखकर राजा को वैराग्य हो गया। उसने सुबुद्धि आदि मन्त्रियों को बुलाया और विजयसेन आचार्य के समीप दीक्षा लेने का अपना दृढ़ निश्चय कह सुनाया । सबने राजा का अनुमोदन किया । चन्द्रसेन नामक ज्येष्ठ पुत्र को राज्य देकर राजा ने भावपूर्वक दीक्षा धारण कर ली । कल विजयसेनाचार्य के पास जाऊँगा, ऐसा सोचकर वह एकान्त स्थान में रातभर प्रतिमायोग से स्थित रहा। अग्निशर्मा, जो कि मृत्यु के अनन्तर विद्युत्कुमारों में ढाई पत्य की स्थिति वाला देव हुआ था, अवधिज्ञान के द्वारा अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त जानकर गुणसेन के ऊपर क्रोधित हुआ। उसने नरकाग्नि की लपटों के समान अत्यन्त कठोर धूलि की वर्षा गुणसेन पर की गुणसेन ध्यान से किंचित् भी विचलित नहीं हुए जिनेन्द्र भगवान् के वचनों के अनुसार अग्निशर्मा के प्रति मन में मैत्री भाव रख उन्होंने देह त्याग किया और शुभ परिणामों से मरकर सौधर्मस्वर्ग के चन्द्रानन विमान में देव हुआ।
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