Book Title: Samipya 2008 Vol 25 Ank 03 04
Author(s): R T Savalia
Publisher: Bholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan

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Page 86
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह सूक्त के ऋषि सिन्धुद्वीप है । (ऋग्वेद १० / ९ में त्वष्टा के पुत्र त्रिशिरा या सिन्धुद्वीप आंबरीष ऋषियाँ है) देवता 'आप' (जल: है, छंद गायत्री है और यह चार ऋचा का सूक्त है । यह सूक्त के प्रथम तीन मंत्रो से ब्राह्मण संध्यावंदन समय में मार्जन करते है । यह सूक्त और इसके बाद के सूक्त (६) से ऐन्द्राग्नि पशु पर वपा (चरबी या मेद) होम के बाद मार्जन किया जाता है । ९५ अग्निचयन में उख (भठ्ठी) के लिए लाया गया मिट्टी के पिंड को खाखरे के पर्ण से कसाणां (तूरे) बने हुए जल से भीगोकर यह सूक्त से अभिमंत्रण किया जाता है । १६ बृहदगण और लघुगण में यह सूक्त की गिनती की गई है । सलिलगण में भी यह सूक्त का समावेश किया गया है । १७ आगे के सूक्त की तरह गौओं के रोगो का उपशमन, पुष्टि, प्रजननकर्म और अर्थोत्थापन में विघ्नों को दूर करने के लिए यह सूक्त का विनियोग बताया गया है। वास्तु-संस्कार कर्म में यह सूक्त से कलश के जल को घर की भूमि पर छंटकाव करना कहा है । १८ आदित्य नाम की महाशान्ति भी यह सूक्त का विनियोग है । १९ ‘आप:’अर्थात् जल या आप्तजन भी होता है । २० 'शिवतमः रसः' अर्थात् कल्याणकारी रस-दूध वा जल । 'इच्छुक माताएँ' साथ में होने से माँ के स्तन्य की तरह, 'जीवन रस पोषक जल' भी हितकारी । 'क्षयाय जिन्वथ' अर्थात् निवास के लिए पोषक रस औषधि में स्थिर हो इसीलिए औषधियों को तृप्त करते हो पुष्ट करते हो, या 'जिस जीवनरस के लिए आप हो' । जल में प्रजनन शक्ति बढाने का सामर्थ्य है वह अंतिम चरण में द्योतित होता है । 'आयोजनयथा च नः' हमको प्रजननशक्ति देते हो । हमको बडे परिवाल वाले बनाते है, जिससे हम यज्ञ कर सकते है । यज्ञ ऋत्विज का संतान - । (सायण सामवेद २/१/२,१० - ३ में गमाम् का गमयाम प्रेरक का अर्थ लेते है किन्तु, यह अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं लगता ।) 'वार्याणाम् ' अर्थात् इच्छने योग्य या जिसका निवारण हो सके यह रोग । 'वारि' अर्थात् जल, जल से संबंधित, जल के दिव्यजल, वृष्टि के जल, रेगिस्तान के जल, वाव - कूवें आदि के जल, जलमय प्रदेश का जल आदि प्रकार उसके गुणधर्म से भिन्नता धारण करते है । क्षयन्तः चषणीनाम्क्षि-निवासगत्योः के अंतर्भावित प्रेरक का शत्रुन्त स्त्रीलिंगरूप क्षयन्ती निवास कराने वाले । क्षि-नाशकरना, इसके उपर से 'रोगो को मिटाने वाला' अर्थ हो सकता है। अंतिम चरण में जल-चिकित्सा का निर्देश है । शुद्ध जल औषधरूप है, वह तो अमृत है । सूक्त - ६ दिव्य गुणवाले जल हमारे अभीष्ट सिद्धि के लिए और पान वा रक्षा के लिए सुखदायक होवें और हमारे रोग की शान्ति के लिए और भय दूर करने के लिये सब और से वर्षा करे । २१ बड़े ऐश्वर्य वाले परमेश्वरने (चन्द्रमा वा सोमलताने) मुझे व्यापनशील जलों में सब औषधों को और संसार के सुखदायक अग्नि (बिजुली या पाचनशक्ति) को बताया है । २२ हे व्यापनशील जलो ! मेरे शरीर के लिए और बहुत काल तक चलने या चलानेवाले सूर्य को देखने के लिए कवचरूप भय निवारक औषध को पूर्ण करो । २३ हमारे लिये निर्जल देश के जल सुखदायक और जलवाले देश के (जल) सुखदायक होवें । हमारे लिये खनती वा फावड़े से निकाले गये जल सुखदायक होवें; और जो घड़े में लाये गये वह भी सुखदायी होवें, वर्षा के जल हमको सुखदायी होवें २४ अथर्ववेद में जलचिकित्सा For Private and Personal Use Only 83

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