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जिन जिलों में रहता है, सोम जिनमें रहता है, सब देव जिनमें अन्न प्राप्त करके आनंदित होते है, विश्वसंचालक
अग्नि जिनमें प्रविष्ट हुआ है, वे दिव्य जल यहाँ मुझे सुरक्षित रखें । २८ खनीत्र (खोदने का साधन ) से प्राप्त किया हुआ जल वाव, कूएँ मिलता खंदक जल इस प्रकार का है । 'कूप्य' कुवे का जल है । तालाब का जल या झील का जल, कूवे या वाव के जल से भिन्न प्रकार के होते है । 'स्वर्णिम' जल सुवर्ण जैसा शुद्ध जल है । इसी तरह जल के विविध प्रकार देखते हुए उसके भिन्न-भिन्न गुणधर्म के अनुसार जल के उपयोग किये जाते 1
नित्य बहते हुए जल हितकारी माने गए हैं। अथर्ववेद के (१/६/१) सूक्त में ऐसे जल को हितकारी और पीने योग्य माना गया है। ऐसे जल सुखदायक है, बलदाता है, रम्य है । ( १/५/१) ऐसे जल को 'शिवतम रस' कहा गया है। रस यानि कि दूध और जल । जैसे माँ का दूध संतान के लिए पोषक है, वैसे ऐसा जल पोषक बनता है। ऐसा जल नित्य नया जीवन देता है, प्रजननशक्ति वर्धक है । ऐसे जल की नित्य इच्छा रखनी चाहिए। ऐसे जलरूपी औषध को सिन्धुद्वीप नित्य चाहते है । ( १ / ५ / ४)
यह जल माता है, वह हमेशां के लिए मध और दूध की तरह मधुर और पोषक है। ऐसे जल गौओं को पीना चाहिए ऐसा सिन्धुद्वीप ऋषि का मानना है। (१/४ / ३) अर्थात् गौधन जैसे पशुओं के लिए भी ऐसे जल अपेक्षित है। ऐसे जल में ही अमृत एवं औषध भी है। गौओं और घोड़ो इससे बलवान बनते है (१-४-४)
सोम ने सिन्धुद्वीप ऋषि को बताया है उसी तरह जल में सभी औषध है । जल में ही अग्नि है, जो विश्व का हित करता है। बड़े बड़े बंध बाँधकर रचे गए सरोवर के जल प्रपात से बीजली उत्पन्न की जाती है । जल में अग्नि होने का वेदविधान ऐसे थर्मल पावर सूचित करते है । ( १ / ६ / २) हमेशां ऐसे जल औषधरूप होने से तंदुरस्ती बढ़ती है। मनुष्य दीर्घायु होता है । (१/६/३) ऐसे जल नित्य हितकारी हो वही, ऋषि मनोकामना रखते है, भले ही वह जल रेगिस्तान के हो या अनुपभूमि के हो अतवा वाव - कूवे खोदकर निकाले हुए हो, या भरकर लाए गए हो। ऐसे जल वृष्टि से प्राप्त किये हुए भी ऋषिने १-६-४ में 'सन्तु वार्षिकीः' कहकर बताया है। 'वृष' याने बरसना, सींचना। जो जल प्रजनन, शक्तिवर्धक, वृद्धिवर्धक या वनस्पति के अंकुर फूटने में सहायक होते है वह जल नित्य औषध रूप है । अथर्ववेद के जल चिकित्सा का ऋषि सिन्धुद्वीप है । नाम अनुसार ही उन्होंने अपना जीवन जल- चिकित्सा और जल के गुणधर्म की शोध करने में पसार किया होगा वैसा सूचित होता है ।
पादनोंध
१. ऋग्वेद १/२३ के १६ से २१ मंत्र, अथर्ववेद १/४ / २ (यजुर्वेद: ६/२४) १/४/३, १/४/४ (यजुर्वेद : ९/ ६) १/६/२ (ऋग्वेद : १०/९/६) और १ / ६ / ३ समान है। ऋग्वेद : १०/९/४ (यजुर्वेद : ३६ / १२) अथर्ववेद: १ / ६ / १ से समान है । वह सामवेद के आग्नेय पर्व : १३ में भी है। यह सूक्त बृहद्गण ( कौ.सू. : ९/ २) और लघुगण ( कौ.सू. : ९/८) में भी है ।
अम्बया यन्प्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् । पृग्वतीर्मधुना पयः ॥ अथर्ववेद : १/४/१
अथर्ववेद में जलचिकित्सा
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