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यह सूक्त के सिन्धुदीप और कृति अथर्वा ऋषि है । (ऋग्वेदः १०/९ में त्वष्टा के पुत्र त्रिशिरा और सिन्धुद्वीप आंबरीष ऋषि है) देवता आप (जल), सोम और अपांनपात् अग्नि है । छंद पथ्या पंक्ति है। यह चार ऋचा का सक्त है ।
यह सूक्त का प्रयोजन पहले (सूक्त-५) की तरह ही है । बृहद्गण और लघुगण में प्रथम ऋचा का प्रयोग होता है ।२५ इन्द्रमह नाम के कर्म में आचमन करने के लिए भी उसका विनियोग है ।२६ राजा के पुष्पाभिषेक के लिए भी यह सूक्त का प्रयोग किया जाता है ।
पैप्लाद संहिता के अनुसार अथर्ववेद के प्रथम सूक्त का यह प्रथम मंत्र है। संध्या-विधि में मार्जन के लिए भी प्रयोग होता है । यहाँ 'शम्' का कल्याण, योगक्षेम अर्थ होता है । अर्थात् सौम्य गुण से युक्त परमात्मा, आयुर्वेद का विद्वान, सोमलता का मूर्त स्वरूप, सोमदेव । 'अग्नि'-शांति, सुख, कल्याण या स्वास्थ्य देनेवाले देव है । मेघजल में विद्युत स्वरूप से अग्नि रहा है इसी लिए वह 'अपां नपात्' कहा जाता है । मरुभूमि के जल, जलमय प्रदेश का जल, घाव-कूवें के जल, कलश में भरकर लायें गये (रखें हुए) जल और वर्षा के जल । यह जल के प्रकार में से पहेले के बाद दूसरा उत्तरोत्तर स्वच्छ और आरोग्यप्रद है।
अथर्ववेद में विषय वैविध्य बहुत है। इसमें विषय विभागीकरण अलग-अलग गण से 'अथर्ववेद परिशिष्ट' में बताया गया है । अथर्ववेद में विविध प्रकार के चिकित्सा विषयक औषधि-सूक्त है । शल्य चिकित्सा, मणि चिकित्सा आदि प्रकार की चिकित्साओं में से यहाँ जल-चिकित्सा संबंधित तीन की समीक्षा की गई है।
ऋग्वेद के सातवें मण्डल के 'आपोदेवी' सूक्त में जल के कई प्रकार दिये गये है । यह तो प्रचलित है कि मेघजल अवकाश में से नीचे आते समय वातावरण में से पसार होते समय कोई प्रकार के वायु उसमें मिलते है, तब उसके गुणधर्म में बदलाव आता है। यह जल पृथ्वी पर बहते समय भूमि के क्षार उसमें मिलते है । बहते जल हमेशां ही निर्मल होते है, फिर भी उसमें ऐसे रासायणिक द्रव्य और धात मिलते है तब जल के गणधर्म में बदलाव आता है।
आयुर्वेद के ग्रंथो में जल के गुणधर्म के संदर्भ में विविध धातुएँ वा कोयला, पत्थर आदि अग्नि में तपाकर जल में डालकर, जल के गुणधर्म में परिवर्तन किया जा सकता है, और उसीसे ही चिकित्सा
तरह विविध रासायणिक गुणधर्म वाले जल के प्रकार बनते है।
जिन में समुद्र श्रेष्ठ है ऐसे जल, जल के मध्य स्थान से चलते है। जो पवित्र करते है और कहीं भी ठहरते नहीं है । व्रजधारी बलवान इन्द्र ने जिनके लिए मार्ग बना दिया था, वे दिव्य जल मेरी सुरक्षा करें । जो जल आकाश से प्राप्त होता है और जो नदियो में बहते है, जो खोदकर कूवे से प्राप्त होते है, जो शुद्धता और पवित्रता करने वाले है ये सब समुद्र की और जानेवाले है, वे दिव्य जल मेरी यहाँ सुरक्षा करें । जिनका राजा वरुण मध्य लोक जाता है और लोगों के सत्य और अनृतका निरीक्षण करता है, जो जलप्रवाह मुधुररस देते है, जो पवित्र और शुद्ध है, वे दिव्य जल यहाँ हमारी सुरक्षा करें । वरुण राजा 84
सामीप्य : पु. २५, is 3-४, मोटो. २००८ - मार्य, २००८
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